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राजा का सेवक - "मैं मंत्रीश्वर के लिए राजा का संदेश लेकर आया हूँ।" पेथड़शाह का सेवक -“लेकिन आप अभी मंत्रीश्वर से नहीं मिल सकते।" राजा का सेवक - “पर राजा स्वयं उन्हें बुला रहे है।" पेथड़शाह का सेवक - “परंतु मंत्रीश्वर अभी देवाधिदेव की भक्ति कर रहे है।"
__ इस प्रकार का जवाब सुनकर राजा के सेवक ने गुस्से में आकर सारी बात राजा को बताई। राजा आवेश में आकर स्वयं पेथड़शाह को बुलाने मंदिर में पहुँच गये। पेथड़शाह के सेवक ने राजा को भी वही खड़ा रख दिया। तब राजा ने कहा कि “मैं पेथड़ की भक्ति में किसी प्रकार की अंतराय नहीं करूँगा ऐसा वचन देता हूँ।" यह सुनकर सेवक ने राजा को मंदिर में जाने की अनुमति दे दी। ____ राजा ने मंदिर में जाकर जो दृश्य देखा उसे देखते ही वे स्तब्ध रह गये। पेथड़शाह का मुख प्रभु सन्मुख था। उनके पीछे बैठा हुआ सेवक उन्हें हाथ में अलग-अलग वर्ण के एवं अलग-अलग जाति के पुष्प दे रहा था और उन पुष्पों से अलग-अलग अंगरचना बनाकर पेथड़शाह लीनता पूर्वक भक्ति कर रहे थे। ऐसा देखकर राजा ने पीछे बैठे सेवक को उठाकर स्वयं उस जगह पर बैठ गये और पेथड़शाह को फूल देने लगे। पेथड़शाह भक्ति में इतने लीन थे कि पीछे कौन आकर बैठा है यह भी उन्हें पता नहीं चला। परन्तु अंगरचना में अचानक अलग-अलग वर्ण के पुष्पों का बदलते क्रम आते देख पेथड़शाह का ध्यान भंग हुआ और जब उन्होंने पीछे मुड़कर अपने सेवक से कुछ कहना चाहा। तब अचानक राजा को पीछे बैठे देखकर पेथड़शाह असमंजस में पड़ गये। राजा ने कहा - मैं आपकी प्रभु भक्ति से बहुत खुश हूँ और पीठ थपथपाते हुए पुन: कहा- 'धन्य है! आपकी प्रभु भक्ति की तल्लीनता को!'
2. इस प्रकार प्रभु भक्ति में तल्लीन रहने वाले पेथड़शाह के जीवन में एक बार भारी धर्म संकट आया । खंभात के एक श्रेष्ठी ने हिन्दुस्तान के सभी ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार किए हुए व्रतधारियों को अपनी तरफ से एक-एक रत्न कांबली भेंट दी। एक दिन श्रेष्ठी की आज्ञानुसार एक सेवक रत्न कांबली पेथड़शाह को भेंट देने आया तब - पेथड़शाह- "मुझे कांबली क्यों?" सेवक- "हमारे सेठ की विशेष सूचना से ..." पेथड़शाह- "लेकिन मैंने तो बह्मचर्य व्रत अंगीकार नहीं किया है" सेवक- “ भले ही आपने व्रत का अंगीकार नहीं किया है लेकिन हमारे सेठ की विशेष सूचना है कि आपको एक कांबली भेंट दी जाए।" पेथड़शाह- "मेरे द्वारा यह कांबली नहीं स्वीकारी जाएगी।"