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स्वर्ण मंदिर बनवाकर, सुदंर रत्नों की प्रतिमा भरवाकर और फिर आपके पुनित हस्तों से उसकी प्रतिष्ठा करवाऊँगा एवं आपके सुसानिध्य में विशाल छ: री पालित संघ निकलवाकर अंत में आप ही के चरणों में चारित्र ग्रहण कर अपने भवभ्रमण को मिटाऊँगा । पर गुरुदेव दुर्भाग्य से आज मेरा जीवन समाप्ति की दिशा में बढ़ रहा है, मैं अपनी भावना को यथार्थता का रूप नहीं दे पाऊँगा । अब मुझे अपने सारे मनोरथ धूल में मिलते नज़र आ रहे है। यह आँसू इसी दु:ख के है”। इतना कहकर नृपदेवसिंह रोने लगे।
उनके अद्भुत अजोड़, मनोरथ सुनकर पूज्यश्री की आँखों से भी अनुमोदनार्थ तथा हर्ष के प्रतीक रूप आँसू निकल पड़ें।अंत में गुरुदेव ने सुकृत अनुमोदना, दुष्कृत की गर्हा, क्षमापना तथा व्रताचार करवाकर अपूर्व निर्यामणा करवाई। अपने दोनों हाथों को जोड़कर 'पूज्य श्री को अंतश: वंदना' इस प्रकार बोलते हुए नृपदेव की आत्मा परलोक प्रयाण कर गई। सचमुच नृपदेव के मनोरथों को सुनकर एक बार तो कहने का मन हो ही जाता है कि 'बाप से बेटा सवाया।'
मंत्रीश्वर पेथड़शाह
1. मांडवगढ़ के महामंत्री पेथड़शाह जिनका नाम इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षर में लिखा गया है। यदि हम उनके जीवन पर दृष्टिपात करे तो हमें पता चलता है कि मंत्री पद पर आसीन होने के पूर्व दरिद्रावस्था के कई दुःखद अनुभवों से उन्हें गुजरना पड़ा।
एक बार मालवा देश के मुख्य नगर में प्रवेश करते ही सर्प को मार्ग काटते देख पेथड़शाह वहीं खड़े हो गए। उस समय वहाँ एक विद्वान शुकन शास्त्री आ पहुँचा। उसने पेड़ को पूछा, “आप यहाँ क्यों खड़े हों ?” तब उसने मार्ग काटते हुए सर्प को दिखाया । शुकन विद्वान ने सर्प की ओर दृष्टि करके देखा तो उसके मस्तिष्क पर काली देवी (चिड़ियाँ) बैठी हुई दिखाई दी। वह तत्काल बोला “ यदि आप रुके बिना चल दिये होते तो आप मालवा के राजा बन जाते। अभी इस शुकन को मान देकर इसी समय प्रवेश करें, इससे आप महाधनवान बन जायेंगे” स्वयं को प्राप्त हुए शुकन का ऐसा फल जानकर पेथड़ ने तत्काल नगर में प्रवेश किया। वहाँ घोघा राणा के मंत्री के घर सेवक बनकर रहे। राजा ने पेथड़ की चतुराई देखकर उन्हें मंत्री बनाया। और धीरे-धीरे पेथंड़शाह महाधनवान बन गए। मंत्री पद पर आसीन होने पर भी पेथड़शाह की प्रभुभक्ति आसमान की ऊंचाई को स्पर्श कर रही थी । प्रभुभक्ति करने जब पेथड़शाह बैठ जाते थे तब उन्हें अपने मंत्री पद की कोई चिंता नहीं सताती थी।
एक दिन प्रभुभक्ति में बैठे पेथड़शाह प्रभु की पुष्प द्वारा अंगरचना कर रहे थे। उसी समय राजा का व्यक्ति राजा की आज्ञा से पेथड़शाह मंत्री को बुलाने आया। तब मंदिर के द्वार पर खड़े पेथड़शाह के सेवक उसे बाहर ही खड़ा रख दिया। राजा के सेवक ने कहा
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