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लिए राजा ने उनके पीछे एक गुप्तचर भेजा। गुप्तचर द्वारा स्थूलभद्रजी के आचार्यश्री के पास जाने के समाचार जानकर श्रीयक को मंत्रीपद प्रदान किया । यक्षा, यक्षदिन्ना आदि सातों बहनों ने भी दीक्षा अंगीकार की।
इस प्रकार संसार के सुख भोग में कंठ तक डूबे हुए स्थूलभद्रजी का हृदय एक झटके में संसार से उदासीन और विरक्त होकर साधना के पथ पर बढ़ने के लिए उतावला हो गया। उन्होंने मुनि संभूतिविजय के पास पुनः विधि से दीक्षा ग्रहण की। राग और मोह के संस्कारों को छिन्न-भिन्न करने हेतु उन्होंने ज्ञानार्जन का मार्ग अपनाया। अल्प समय में गुरु चरणों में रहकर एकादश अंगसूत्र का अध्ययन किया। इसके साथ- साथ वे ध्यान की उच्च साधना में भी संलग्न रहने लगे। इस प्रकार अपने लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु सतत प्रयास करते हुए उनके दीक्षा पर्याय के बारह वर्ष बीत गए। इस दरम्यान उन्होंने ऐसी प्रचण्ड साधना साध ली थी कि ती भुवन में किसी की ताकत नहीं थी कि कोई उनके शीलव्रत को खण्डित कर सके। एक दिन वर्षा ऋतु में तीन मुनिभगवंतों ने गुरुदेवश्री संभूतिविजयजी के पास क्रमश: सिंह की गुफा के पास, सर्प के बिल के पास तथा कुएँ की पाल पर चातुर्मास करने की आज्ञा मांगी। मुनि स्थूलिभद्र ने भी अपनी दीर्घकालीन साधना की परीक्षा करने हेतु कोशा वेश्या के घर पर चातुर्मास करने की आज्ञा माँगी । गुरुदेव ने आशीर्वाद पूर्वक सभी को आज्ञा प्रदान की। चारों अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचे । प्रथम दोनों मुनिवर के तप-जप के प्रभाव से सिंह और सर्प भी शान्त हो गए। कुएँ पर चातुर्मास करने वाले मुनि की अप्रमत्तता से वहाँ पानी भरने वाली पनिहारनें भी प्रभावित हो गई ।
इधर मुनि स्थूलभद्र को अपने आँगन में आते देख कोशा प्रमुदित हो उठी तथा मुनिवर के पास आई। स्थूलिभद्रजी ने उसकी चित्रशाला में चातुर्मास करने हेतु आज्ञा मांगी। इस पर कोशा ने कहा “अपने ही घर में आज्ञा कैसी स्वामी ?” मुनि ने साधु मर्यादा बताते हुए कहा "कोशा, जैन मुनि हूँ। हमारा कोई घर नहीं होता। आज्ञा बिना हम कहीं ठहर नहीं सकते।" यह सुन कोशा ने मुनि को आज्ञा दी। चातुर्मास प्रारंभ हुआ। कोशा को लगा स्थूलिभद्र स्वयं ही पिघल जायेंगे। लेकिन जब कोशा को लगा कि मुनि तो वैराग्य में स्थिर है तब से कोशा नित्य नये श्रृंगार द्वारा सज-धजकर आने लगी। मुनि को कामोत्तेजक गुटिका से निर्मित षड्स आहार वहोराने लगी। हाव-भाव, नृत्यादि होने लगा । कोशा हमेशा मुनि को पुरानी बाते याद दिलाने लगी परन्तु मुनि सदैव मौन में रहे। कोशा को जो करना था वह करने दिया । कोशा भी मुनि को चलित करने हेतु रात-दिन मेहनत करने लगी। परंतु अपूर्व सुंदरी होते हुए भी वह कामविजेता मुनि को चलायमान न कर सकी। कुछ ही दिनों में उसकी आशा निराशा में बदलने लगी। परंतु साथ ही वह मुनि की निर्विकारिता से भी प्रभावित हो गयी। तत्पश्चात् एक दिन कोशा मर्यादित एवं सादे वस्त्र धारण कर एक
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