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स्वीकार करली तो मैं अपनी प्रिया कोशा को समय नहीं दे पाऊँगा।" इस प्रकार कोशा का विचार करतेकरते उनके विचार चिंतन में परिवर्तन होने लगे। उनकी आत्मा से आवाज़ आई “परंतु कोशा भी तो एक बंधन है। एक ऐसा बंधन जिसने मुझे अपने कुल, जाति, परिवार से दूर रखा। यह कैसा मोह जिसने मुझे अपने पिता की मृत्यु से अनभिज्ञ रखा। इस बंधन में फँसने के बाद मैं न तो अपने पिता का चेहरा देख पाया
और ना ही अपने पिता के काम आया। न दुनिया मुझे पहचान पाई और ना ही मैं अपना अनमोल मनुष्य भव सार्थक कर सका। मैंने उच्च कुल में जन्म लिया पर बारह वर्षों तक वेश्या के घर रहकर अपने कुल को कलंकित किया। रही बात मंत्री पद स्वीकार करने की, तो जिससे पिता की अकाल मृत्यु हुई ऐसी मंत्री मुद्रा से क्या लाभ' ? इस प्रकार चिंतन की धारा बढ़ती गई और उनके मन तथा आत्मा के बीच संघर्ष छिड़ गया। उनकी सुषुप्त आत्मा जागृत हुई।
उन्होंने निर्णय किया कि राज्यपद तथा कोशा दोनों ही बंधन है। अब मुझे इन बंधनों में नहीं बंधना है। एक झटके में सारे मोहपाश को तोड़कर तत्क्षण लोच कर लिया। देवप्रदत्त साधु वेश पहनकर राजसभा में आए। उनके बदले रुप को देखकर राजा, श्रीयक सहित सभी सभासद आश्चर्यचकित हो गए। सभी के मन में उठी शंकाओं का समाधान करते हुए मुनि स्थूलिभद्रजी ने कहा- “राजन् ! राग और वैराग्य के मानसिक युद्ध में वैराग्य की जीत हुई। मुझे दोनों में से यही मार्ग उचित लगा"। इतना कहकर उन्होंने राजा को अपना चिंतन बताया। राजा ने अपनी जिज्ञासा प्रगट करते हुए उनसे पूछा “माना कि राज्यपद तथा नारी यह बंधन है। परंतु क्या साधु जीवन में बंधन कम है ? साधुत्व स्वीकारने के बाद तो कई मर्यादाओं का पालन करना पड़ता है। तो आप उन बंधनों को स्वीकारने के लिए कैसे तैयार हो गये ?
मुनि स्थूलिभद्र ने कहा – माना कि साधुजीवन भी एक बंधन है। साधु बनकर शरीर, इन्द्रिय और मन की प्रवृत्तियों पर ताला लग जाता है। परंतु भविष्य में इन्हीं बंधनों से अपने कर्मों को तोड़कर आत्मा सादि अनंत काल के लिए स्वतन्त्र बन जाती है। शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेती है। इसके विपरीत नारी और राज्यपद रुपी बंधन से तो यह आत्मा भविष्य में नरक के और भी दुखदायी बंधनों में बंध जाती है। बंधन दोनों में ही है परंतु साधुत्व के बंधनों से आत्मा भवांतर में सुखी होती है और सांसारिक बंधनों से आत्मा दुर्गति का शिकार बनती है। तो अब आप ही बताइये कौन-सा बंधन स्वीकारने में चतुराई है?" यह सुन राजा निरुत्तर हो गये। ‘धर्मलाभ' के आशिष देकर मुनि स्थूलिभद्र वहाँ से निकलकर तत्र बिराजित चतुर्दश पूर्वधारी मुनि संभूतिविजयजी के पास गए। राजा सहित सभी लोगों को लगा कि कोशा के चंगुल में फँसने के बाद निकल पाना बहुत मुश्किल है। इसलिए इस स्थूलिभद्र का वैराग्य कच्चा है या पक्का यह जानने के