________________
श्रीकृष्ण शारीरिक, मानसिक, आत्मिक एवं आध्यात्मिक-सभी प्रकार की सुषमाओं से विभूषित थे । दार्शनिकों, भक्तों एवम् कवियों के अनुसार उनका शारीरिक संस्थान अत्युत्तम था और शरीर की प्रभा निर्मल इन्दीवर के समान थी । उनको वाणी गम्भीर और मधुर थी । उनका शरीर-बल भी अप्रतिम था । वे अद्वितीय योद्धा और कुशल सेनानायक थे । इनकी मेधा विमल और बुद्धि सर्जनात्मक शक्ति से अलंकृत थी । वे महान, धीर-वीर, कर्तव्य-परायण, बुद्धिमान, नीतिवान, स्वभाव से दयालु, शरणागत-वत्सल, विनयी और तेजस्वी थे । वे कर्मयोगी थे, - निष्काम कर्मयोगी । उन्होंने अपने जीवन में सतत निष्काम कर्म को अपनाया । वही उनका जीवनसन्देश और गीता का ज्ञान बन गया । अकर्मण्यता और आलस्य को उन्होंने कभी प्रश्रय नहीं दिया । इसके साथ ही उन्होंने कोरे भाग्यवाद को निरासित कर पुरुषार्थवाद का महत्त्व स्थापित किया ।
सबसे बड़ी बात जो कृष्ण के विषय में कही जा सकती है वह यह है कि श्रीकृष्ण ने अपनी ओर से कभी किसी को नहीं सताया और न अपनी
ओर से व्यर्थ ही युद्ध करके रक्तपात किया, या न कहीं किसी पर युद्ध थोपने का प्रयास किया । यहाँ तक कि आततायी जरासंध और शिशुपाल को भी प्रायश्चित्त के अनेक अवसर प्रदान किए ।
जैन कृष्णचरित्र के अनुसार कृष्ण न तो कोई दिव्य पुरुष थे, न तो ईश्वर के अवतार या स्वयं भगवान, वे मानव ही थे । ईश्वर की तमाम उदात्त एवं उत्कट शक्तियाँ भी मानव-जीवन में ही अपनी सम्पूर्ण भव्यता के साथ प्रस्फुटित होती हैं तब विश्व उनके समक्ष विस्मयानन्द विमुग्ध होकर नत मस्तक होता है और सहस्र-सहस्र कण्ठों से उनका अभिवादन करता है । कृष्ण ऐसे ही असाधारण पुरुष थे । वे स्वभाव से अहिंसावादी थे । जैन ग्रन्थों में एक भी ऐसा प्रसंग नहीं आया है जिसमें श्रीकृष्ण ने शिकार खेला हो, और मांसाहार किया हो । यह उन पर उनके चचेरे भ्राता
अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) का प्रभाव माना जाता है जो जैनों के २२ वें तीर्थंकर हुए।
श्रीकृष्ण के जीवन के प्रसंगों को पौराणिक साहित्य में विस्तार से आलोकित किया गया है । किन्तु बहुत से ऐसे प्रसंगों का वर्णन भी इस साहित्य में है, जिनका वर्णन बौद्ध या जैन साहित्य में नहीं हुआ है । तथापि महाभारत, हरिवंशपुराण, श्रीमद्भागवत पुराण आदि में उपलब्ध कृष्णकथा तथा जैन साहित्य में उपलब्ध कृष्णकथा पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार करें तो दोनों परम्पराओं की कथाओं के चरितनायक कृष्ण एक ही लगते हैं ।
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास • I