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ने द्वारका नगरी का निर्माण किया । उसने बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी इस वज्रमय कोट से युक्त नगरी में सभी के लिये योग्य आवास बनाए और कृष्ण को अनेक दिव्य शस्त्रास्त्र, रथ आदि भेंट किए । यादव वंशी वहाँ पर निवास करने लगे।
यहाँ पर पूर्व कृष्णचरित्र समाप्त होता है । उत्तर कृष्णचरित्र रुक्मिणी के हरण से शुरू होता है ।
एक बार नारद द्वारका आये और वे सत्यभामा के व्यवहार से असंतुष्ट हो गये । उन्होंने सत्यभामा का गुमान दूर करने के लिए कुण्डिनपुर की राजकुमारी रुक्मिणी के रूप में कृष्ण के वास्ते एक दूसरी - पटरानी खोज निकाली और उसका चित्रपट दिखाकर कृष्ण को उस पर अनुरक्त भी कर दिया । कृष्ण कुण्डिनपुर जा पहुंचे और पूर्व-योजना के अनुसार, नागदेव की पूजा के बहाने उद्यान में आई हुई रुक्मिणी का हरण करके चलते बने । युद्ध में उन्होंने शिशुपाल को मार गिराया और रुक्मिणी के भाई रुक्मी को बन्दी बना लिया । द्वारका पहुँच कर रुक्मिणी के साथ विधिवत् विवाह कर वे सुख से रहने लगे । कुछ कालोपरान्त रुक्मिणी को पुत्रोत्पत्ति हुई । पूर्वभव के बैरी धूमकेतु असुर द्वारा अपहृत होकर कालसंवर विद्याधर द्वारा वह बचा लिया गया । और उसकी स्त्री कनकमाला द्वारा पाला गया । उसका नाम प्रद्युम्न रखा गया । जब कनकमाला प्रद्युम्न के प्रति काम से विह्वल हो गई
और उसे रिझाने का प्रयत्न करने लगी, तब प्रद्युम्न ने जिनालय में जाकर सागरचन्द्र मुनिराज से इसका रहस्य पूछा । मुनिराज ने प्रद्युम्न को उन दोनों के पूर्वभव बताए । प्रद्युम्न कनकमाला के पूर्वभव की कामेच्छा को अपूर्ण छोड़ किसी प्रकार उसके प्रपंच से बचकर द्वारका पहुँचा । वहाँ तरह-तरह की अद्भुत चेष्टाओं के बाद उसका मिलन माता-पिता से हुआ ।
सत्यभामा को भी एक पुत्रकी प्राप्ति हुई । उसका नाम भानुकुमार रखा गया । कृष्ण ने जाम्बवती, लक्ष्मणा, सुसीमा, गौरो, पद्मावती और गांधारी नामक कन्याओं का पाणिग्रहण किया । जाम्बवती से शाम्ब नाग के पुत्र की उत्पत्ति हुई।
कौरवों के उत्पात से तंग होकर और उनके षड्यंत्र से प्राण बचाकर पाण्डव वन-वन भटकते रहे । हस्तिनापुर लौटकर वे जुआ में हारे और बारह वर्ष तक अज्ञात वास करने के पश्यात् घर आए । दुर्योधन का बढ़ता हुआ दुर्भाव देखकर उन्हें एक बार फिर हस्तिनापुर छोड़ना पड़ा । इस बार वे कृष्ण के यहाँ द्वारका पहुंचे जहाँ यादवों ने उनका बड़ा सत्कार किया।
द्वारका में यादवों के बढ़ते हुए वैभव को सुन जरासंध ने युद्ध की
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरू-दिकाय • 49