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समर्थ महाकवि था और संभवतः वह जैनेतर कवि था । उसने एक रामायनविषयक और एक महाभारत-विषयक - महाकाव्यों की रचना की थी। यह मानने के लिए हमारे पास पर्याप्त आधार हैं | उसके महाभारत-विषयक काव्य में कृष्णचरित्र के भी कुछ अंश अवश्य ही आए होंगे, ऐसा हम मान सकते हैं।
चतुर्मुख के सिवा स्वयम्भू का एक और ख्यातनाम पूर्ववर्ती था । उसका नाम था गोविन्द । स्वयम्भू छन्द में दिये गये उसके उद्धरण हमारे लिए अमूल्य हैं । गोविन्द के जो छह छन्द स्वयम्भू ने दिये हैं वे कृष्ण के बालचरित-विषयक किसी काव्य में से लिए हुए जान पड़ते हैं । इसमें कृष्ण और राधा के प्रेम-प्रसंग विषयक छन्द भी हैं । विशेष छन्दों के कारण गोविन्द कवि का काव्य जैनेतर जान पड़ता है ।
स्वयम्भू छन्द में गोविन्द से लिए गए मत्तविलासिनी मात्रा छन्द का उदाहरण कृष्ण बालचरित्र का एक सुप्रसिद्ध प्रसंग-विषयक है । यह प्रसंग है कालियनाग के निवासस्थान बने हुए कालिन्दी हृद से कमल निकाल कर भेंट करने का आदेश, जो नन्द को कंस से दिया गया था। पद्य इस प्रकार है।
“एहु विसमउ सुठ्ठ आएसु पाणंतिउ माणुसहो, दिट्ठिविसु सप्पु कालियउ । कंसु वि मारेइ धुउ, कि कहिं गम्मउ काइकिज्जउ ।
(स्व.छं.४-१०-१) यह आदेश अतीव विषम था । एक ओर था मनुष्य के लिए प्राणघातक दृष्टिविष कालिय सर्प, और दूसरी ओर था आदेश के अनादर से कंस से अवश्य प्राप्य मृत्युदण्ड, तो अब कहाँ जाया जाए और क्या किया जाए ?
गोविन्द का दूसरा पद्य राधा और कृष्ण का प्रेमातिरेक प्रकट करता है । हेमचन्द्र के सिद्धहैम में भी यह उद्धत हुआ है और वहीं कुछ अंश में प्राचीनतर पाठ सुरक्षित है । स्वयम्भू छन्द में दिया गया गोविन्दकृत वह दूसरा छन्द इस प्रकार है । (कुछ अंश हेमचन्द्रवाले पाठ से लिया गया है- ।)
“एक्कमेक्कउं जइ वि जोएदि हरि सुठु वि आअरेण तो दि देहि जहिं कहिं वि राही ।
को सक्कइ संवरेवि दकृणअण णेहें पलुट्टा ।। (स्व. छं.४-१०-२) एक-एक गोपी की ओर हरि यद्यपि पूरे आदर से देख रहे हैं तथापि उनकी दृष्टि वहीं जाती है जहाँ कहीं राधा होती है : स्नेह से झुके हुए नयनों का संवरण कौन कर सकता है भला ?
32 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास