________________
एक ही राजनीति थी । उनका एक ही उद्देश्य था कि जगत के ऊपर दुष्टों का आधिपत्य समाप्त करना । उसको समाप्त करने के लिए जो कुछ करना पड़े वही सत्य, वही नीति, वही धर्म । जैन शैली धर्म-क्षेत्र में भी अनुबंध सत्य, अनुबंध न्याय, अनुबंध नीति इत्यादि को ही सत्य, न्याय और नीति मानती है । कुरुक्षेत्र की युद्ध-नीति में तथा पापियों का नाश करने में श्रीकृष्ण ने अनुबंध सत्य, न्याय, नीति इत्यादि का विचार करके ही सारे निर्णय लिए तो इसमें कोई नवीनता नहीं है ।
1
अन्त में यह कहना शेष है कि कृष्ण सर्वत्र, समकालीन, सर्वगुणमयी अभिव्यक्ति में उज्ज्वलतम है । वे अपराजेय, अपराजित, विशुद्ध, पुण्यमय, प्रीतिमय, दयामय, अनुष्ठेय, कर्म में अपराङ्मुख, धर्मात्मा, वेदज्ञ, नीतिज्ञ, धर्मज्ञ, लोक- हितैषी, न्यायनिष्ठ, क्षमाशील, निरपेक्ष, ज्ञाता, निर्मम, निरहंकार, योगी, तपस्वी हैं । उन्होंने शक्ति द्वारा निज कर्म का निर्वाह किया, परन्तु उनका चरित्र अतिमानवीय है । इस प्रकार मानवीय शक्ति द्वारा अतिमानवीय चरित्र का विकास होने से उनमें ईश्वरत्व का अनुमान किया जाता है । जैन हिन्दी साहित्य - वैष्णव साहित्य में वर्णित कृष्ण के श्रृंगारी नायक के स्वरूप के विकार से दूर रहा । उसमें कृष्ण एक उदात्त, वीर, एवम् धर्मनिष्ठ नायक के रूप में प्रतिष्ठित रहें । कृष्ण के स्वरूप चित्र की दृष्टि से जैन साहित्य की यह एक ऐतिहासिक देन है ।
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास
• 165