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हमारे देश की यह रीति-नीति है कि जो राजा का वध करता है, वही उसकी गद्दी पर बैठता है । कृष्ण भी ऐसा कर सकते थे, परन्तु उन्होंने वैसा नहीं किया । धर्मानुसार वह राज्य उग्रसेन का ही था । कंस उनको राज्यच्युत करके स्वयं सिंहासन पर जम गया था । कृष्ण जन्म से ही धर्मात्मा थे । वे स्वभावतः धर्मपालन में निरत थे । अतः जिसका राज्य था, उसको देकर उन्होंने धर्म का निर्वाह किया । कृष्ण परहित साधन को सबसे बड़ा धर्म मानते थे। उन्होंने कंस का वध भी धर्म हित में ही किया था - यादव जाति का हित साधने के लिए अत्याचारी कंस का वध किया था । कंस-वध का प्रमाण हमें इतिहास में मिलता है । इसी प्रसंग से हमें विदित होता है कि कृष्ण अत्यन्त बलशाली, परम कार्यदक्ष, परम धर्मात्मा, पर-हित-निरत एवम् परम करुणाकर थे ।।
कृष्ण का धर्मप्रचार - कार्यप्रधान था न कि उपदेशप्रधान । शिशुपाल जब तक कृष्ण के प्रति अत्याचार करता रहा, वे सहते रहे । परन्तु जब शिशुपाल पाण्डव यज्ञ का ध्वंस करने और धर्म-राज्य स्थापना में विघ्न डालने पर तत्पर हो गया तो कृष्ण ने उसका वध कर दिया । क्षमा और दण्ड दोनों में कृष्ण आदर्श पुरुष थे ।
जैन दृष्टि से कृष्ण भविष्य में होनेवाले आगामी चौबीस तीर्थंकरो में ग्यारहवें नम्बर के अमम नामक तीर्थंकर होंगे । यह बात तो उनकी आत्मा को भविष्य की महत्ता के हिसाब से जैन शैली से रखने में आई है । किन्तु यही आत्मा श्रीकृष्ण स्वरूप में भी जैन दृष्टि से एक बहुत उच्च कोटि की आत्मा स्वीकारने में आई है।
कोई व्यक्ति यदि चतुर राजनीतिज्ञ हो और धर्मात्मा भी हो तब उस व्यक्ति का स्वरूप कैसा होगा ? यह बात जानने के लिए श्रीकृष्ण का हिन्दी जैन साहित्य में वर्णित स्वरूप एक उत्तम उदाहरण है । भागवत तथा महाभारत के कृष्ण की तुलना में जैन साहित्य में वर्णित कृष्ण का स्वरूप ज्यादा न्यायपूर्ण तथा तर्कसंगत है । जैन साहित्य में कृष्ण के कपट तथा झूठ को भी जैन दृष्टि से तर्कसंगत तथा सत्य माना जा सकता है जबकि वैदिक दृष्टि से ऐसा नहीं है । वैदिक दृष्टि में कृष्ण के झूठ, कपट, छल इत्यादि को ईश्वर की लीला बताकर न्याय देने का प्रयत्न किया है जबकि जैन परम्परा में श्रीकृष्ण के प्रति खूब औचित्य एवं न्यायपूर्ण दृष्टिकोण अपनाया गया है । कृष्ण का सत्य, न्याय, नीति, दया इत्यादि अनुबंध" (परिणाम) के विचार के ऊपर आधारित है । कृष्ण का सत्य जैन परिभाषा के अनुसार अनुबंध सत्य है । कृष्ण के मन में एक ही न्याय, एक ही सत्य,
164 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास