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विशालकाय कृतियाँ है' जैसे खुशालचन्द काला कृत हरिवंश पुराण,
शालिवाहन कृत हरिवंश पुराण,महासेनाचार्य कृत प्रद्युम्न चरित्र, नेमिचन्द्र कृत हरिवंशपुराण, बुलाकीदास कृत पाण्डव पुराण इत्यादि । इसके विपरीत कुछ लघु कृतियाँ हैं जो रास, चौपाई, फागु, वेलि आदि के रूप में लिखी गई हैं । ये कृतियाँ नेमिनाथ, प्रद्युम्न, बलराम, पाण्डव इत्यादि से संबंधित हैं । हिन्दी का उत्कर्ष-रूप इस काल के प्रारम्भ में बनने लगता है जो इसके अन्त में आधुनिक रूप में परिवर्तित हुआ है । इस काल के हिन्दी जैन विद्वानों में यशोधर चरित्र के कर्ता गौरवदास और प्रसिद्ध कृष्ण चरित्र तथा नेमीश्वर की वेलि के कर्ता कवि ठाकुरसी के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं । जैन पुराण-साहित्य केवल पौराणिक कथाओं का ही संकलन नहीं है, किन्तु काव्य की दृष्टि से भी उत्तम रचनाएँ हैं । जैन विद्वानों ने हिन्दी पद्य में ही पुराणों की रचनाएँ नहीं की, किन्तु हिन्दी गद्य भाषा में भी इन पुराणों को लिखा है और हिन्दी गद्य साहित्य के विकास में पर्याप्त योग दिया है । इस काल में हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण-स्वरूप से संबंधित दो प्रमुख रचनाएँ लिखी गईं - शालिवाहन कृत हरिवंश पुराण तथा खुशालचन्द्र काला कृत हरिवंश पुराण । इन दोनों कृतियों का आधार जिनसेन कृत हरिवंश पुराण है । इन दोनों कृतियों में हरिवंश की उत्पत्ति व कृष्ण के जन्म से लेकर अन्त तक की सभी घटनाओं का कवि ने अपने तरीके से वर्णन किया है । इन्होंने कृष्ण के अलौकिक स्वरूप का वर्णन किया है।
इन रचनाओं में कृष्ण के जीवन से संबंधित घटनाओं का वर्णन कुछ स्थानों पर परिवर्तन के साथ किया गया है । जैसे-कृष्ण गोकुल से जाने के पश्चात् पुनः यशोदा को लेने मथुरा से गोकुल जाने का वर्णन, बाल स्वरूप का वर्णन भी हिन्दी हरिवंश पुराण में बहुत संक्षिप्त किया है । पुतना-वध का वर्णन इसमें नहीं है । इसी प्रकार हिन्दी हरिवंश पुराण में नारदजी कृष्ण के वैभव का वर्णन जरासंध को करते है, जबकि जिनसेन ने अपने हरिवंश १- उक्त कृतियों का विस्तृत परिचय तृतीय अध्याय में दिया गया है । २- भादौ बदि आवे दिन सार ।। जानिसि उप कृष्ण कुमार ॥ संखरु चक्र पदम लछि परे ।। सुजनां कै तौ सुख अवतरे ।।
-खुशालचन्द्र काला कृत हरिवंश पुराण ३- वही, पृ० ८१ । ४- नील वरण अति सो मैवाल । कोमल मन मोहन सुकुमाल ।
लखि सुकुमार सुषी अति भई । तब देवकि मन साता लई । दोहा १२५, पन्ना ७६ / --खुशालचन्द्र काला कृत हरिवंश पुराण
152 • हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास