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को देखने की न उन्हें आवश्यक्ता थी और न अवकाश ही । कृष्ण अनन्य रूप से मीरा के प्रभु, प्रेमी तथा पति हैं । कृष्ण की बाल-लीलाओं का उन्हें ज्ञान था । कालियनाग नाथने की लीला का वर्णन भी उन्होंने अपने एक पद में किया है । किन्तु उनका कृष्ण के प्रति प्रेम माधुर्य भाव का ही था । माधुर्य भाव में ही उनकी आसक्ति थी । युवाकाल की प्रेम तथा माधुर्य से भीनी लीलाएँ ही उनके प्राण हैं, जिनमें कृष्ण से उनका सीधा सम्पर्क है । इस सम्पर्क में राधा का अस्तित्त्व नहीं है । यहाँ तो मीरा ही सधा है । एक-दो स्थलों पर जहाँ राधा का नाम उन्होंने लिया है वहाँ भी कदाचित उनका तात्पर्य अपने से ही है । मीरा के हृदय में कृष्ण की साँवली मूर्ति बसी हुई है । मोर मुकुट, पीताम्बर और गले में वैजयन्ती माला धारण करके मुरली बजा बजा कर वृन्दावन में जो गउएँ चराता है वही कृष्ण उनका प्रियतम है । राधा बन कर मीरा उनके साथ लगी फिरती है । मीरा की भक्ति-भावना में कृष्ण अपना ऐतिहासिक, पौराणिक तथा पारलौकिक अस्तित्त्व समाप्त कर प्रेम की परिपूर्णता और रस-निष्ठा के प्रतीक बनकर रह गये है। (ब) उत्तर मध्ययुगीन, (रीतिकाल) हिन्दी साहित्य में कृष्ण :
- इस काल में दास्य, सख्य तथा वात्सल्य भाव की भक्ति की अपेक्षा माधुर्य भाव ने कृष्ण के स्वरूप को अधिक प्रभावित किया । मध्ययुग के सभी सम्प्रदाय, माधुर्य-भक्ति को प्रधानता देते थे । चैतन्य तथा वल्लभ सम्प्रदाय का गोपीभाव तथा हरिदास, राधावल्लभ , निम्बार्क सम्प्रदाय का सखी भाव माधुर्य के ही दो रूप हैं । विविधताओं के होते हुए भी उन सब में माधुर्य भाव की एकता दृष्टिगत होती है । भक्ति के विभोर-भाव ने श्रृंगार रस को भी उज्ज्वल रस बना दिया था किन्तु कालान्तर में स्थूल रस स्थूलता को प्राप्त होकर पुनः श्रृंगार के रूप में परिणित हो गया । श्रृंगार रंस के प्रभाव से कृष्ण का रूप इस काल में परिवर्तित हो गया । कृष्ण के प्रति आस्था कम हो गई तथा उनका वर्णन यदि किया भी गया तो विलासिता के वातावरण के बीच उन्हें स्थान दिया गया । यहाँ तक कि कृष्ण अपना समस्त रूप भूल कर मात्र श्रृंगार के नायक शेष रह गए। (स) रीतिबद्ध कवियों के साहित्य में कृष्ण का स्वरूप :
रीतिबद्ध कवियों में कृष्ण को श्रृंगार का नायक माना गया है । राधा के पैरों को पलोटने वाले राधावल्लभ कृष्ण रीतिकाल के कवियों को प्रिय १- भुवनेश्वर नाथ मिश्र : माधव -मीरां की प्रेम साधना-पृ० २६ ।
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास • 149