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प्रथम अध्याय “प्राचीन साहित्य में श्रीकृष्ण के स्वरूप का
उद्भव एवम् विकास भूमिकाः
___ भारत के प्राचीन साहित्य एवं संस्कृति में भगवान श्रीकृष्ण का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । श्रीकृष्ण की लीलाओं से सम्बन्धित कथाएँ वैष्णव, जैन और बौद्ध सम्प्रदायों से सम्बन्धित साहित्य में विविध रूपों में प्राप्त होती हैं । वैष्णव सम्प्रदाय की दृष्टि से भगवान श्रीकृष्ण विष्णु के अवतार के रूप में स्वीकार किये जाते हैं तो जैन-परम्परा में वे एक भावी तीर्थंकर के रूप में । बौद्ध-परम्परा में भी श्रीकृष्ण को बुद्ध भगवान के अवतार के रूप में मानकर उनके प्रति अपनी आस्था प्रकट की है । यही नहीं, इन तीनों सम्प्रदायों के अतिरिक्ति कुछ अन्य भारतीय सम्प्रदायों के साहित्य में भी श्रीकृष्ण सम्बन्धी विविध कथाएँ देखने में आती हैं । आधुनिक युग में तो कुछ विद्वानों ने श्रीकृष्ण और क्राइस्ट तक को एक सिद्ध करने की भी कोशिश की है । इन सब ऐतिहासिक तथ्यों का विश्लेषण करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि केवल वैष्णव सम्प्रदाय में ही नहीं, बल्कि भारत के विभिन्न धार्मिक एवम् सांस्कृतिक ग्रन्थों में कृष्ण सम्बन्धी विभिन्न कथाएँ मिलती हैं । कृष्ण से सम्बन्धित दर्शन एवं भक्ति की व्यापकता को देखते हुए इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि भारतीय धर्मसाधना, साहित्य एवम् समाज पर श्रीकृष्ण के स्वरूप एवम् चरित्र का प्रभाव हजारों वर्षों से चला
आ रहा हैं । हम यहाँ अपने शोध प्रबन्ध के विषय का अनुशीलन से पहले, एक पृष्ठभूमि के रूप में यह स्पष्ट करना आवश्यक समझते हैं कि जैन साहित्य में कृष्ण सम्बन्धी साहित्य की रचना से पूर्व कृष्ण शब्द का प्रयोग तथा श्रीकृष्ण के स्वरूप का विकास किन-किन मतों, और किन-किन भाषाओं में, किन-किन रूपों में स्थापित हो चुका था । १. वैदिक साहित्य में कृष्ण :(क) वेदों में कृष्ण - प्राचीन धर्म, दर्शन, संस्कृति एवम् साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद ही है । वैदिक वाङ्मय में कृष्ण के असाधारण, अद्भुत एवम् अलौकिक व्यक्तित्व और कृतित्व पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है । किन्तु यह समझना समीचीन न होगा कि कृष्ण नामक एक
1. हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वस्प-विकास