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कृति में कृष्ण के बाल-गोपाल स्वरूप का वर्णन द्रष्टव्य है । इस रूप में बालक कृष्ण के गोपाल वेश का तथा दधि-माखन खाने व फैलाने का वर्णन हुआ है । यथा"मांखन खायरु फैलाय, मात जसोदा बांधे आणि है।
डरपायो डरपै नहीं माता तणीय न माने काणि ते॥ कृष्ण का गोपाल वेश- वर्णन निम्न प्रकार हुआ है - "काना कुण्डल जगमगे, तन सोहे पीताम्बर चीर तो।
मकट विराजे अति भलो, बंसी बजावे श्याम शरीर तो र कृति की भाषा राजस्थानी प्रभावित हिन्दी है । (४) गजसुकुमाल रास-२ . गजसुकुमाल रास आदिकालीन रचना है । इसका रचनाकाल ई० सन् १२५८-६८ (विक्रम संवत १३१३-२५) के बीच अनुमानित किया गया है । उसके रचयिता कवि देवेन्द्रसूरि थे।
कृति में कृष्ण के वीर व पराक्रम-सम्पन्न राजपुरुष के स्वरूप का वर्णन है । उनकी तुलना इन्द्र से करते हुए कवि लिखता है - नयरिहि रज्जु करेई तहि कहु नरिदू ।।
नरवई मनि खण्हो जिव सुरगण हंद्र ॥ कृष्ण के द्वारा चाणूर मल्ल, कंस तथा जरासंध हनन का कवि ने उल्लेख किया है । वे वासुदेव राजा हैं । शंख, चक्र तथा गदा आदि का धारण करना जैन परंपरानुसार वासुदेव का लक्षण है । इसका भी कवि ने उल्लेख किया है । यथा“संख चवक गज पहरण धारा ।
. कंस नराहिव कय संहारा ॥ जिण चाणउरि मल्लु वियरिउ ।
जरसिंधु बलवंतऊ धारिउ ॥ कृति की भाषा से १३ वीं शताब्दी ई. के भाषा रूप की जानकारी मिलती है । इसकी भाषा को परवर्ती अपभ्रंश अथवा प्राचीन राजस्थानी कहा जा सकता है । जो कि हिन्दी भाषा का आदिकालीन रूप है । १- हस्तलिखित प्रतिपद संख्या - १६८-६९ । २ गजसुकुमाल रास, अप्रकाशित, हस्तिलिखित प्रतियाँ उपलब्ध -
(अ) अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर । (ब) ग्रंथ भण्डार, जैसलमेर-दुर्ग ।
हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वस्प-विकास • 95