SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दान की परिभाषा और लक्षण ६३ को धर्ममार्ग में लगाओ। ऐसा करने से तुम्हारा भविष्य और भी उज्ज्वल होगा। हम तो निःस्पृही अकिंचन जैन श्रमण हैं, हमें इस राज्य-ऋद्धि से क्या सरोकार ! अतः यही उचित होगा कि अपनी सम्पत्ति का दान देकर अनेक लोगों को धर्ममार्ग में लगाओ।" ___ आचार्यश्री के सदुपदेश को मानकर उसी समय राजा ने निर्णय कर लिया कि "मैं इस शोभायात्रा में सम्मिलित होकर राज्य में अहिंसा और व्यसन त्यागरूप धर्म प्रवर्तित करने की घोषणा करूँ।" शोभायात्रा की पूर्णाहुति के बाद उसने उद्घोषणा की - "आज से मेरे राज्य में कोई भी व्यक्ति पशु-पक्षी का शिकार न करें, शराब और माँस का सेवन न करे।" उसी दिन से उसने जैनधर्मावलम्बी श्रावकों को धर्म में सुदृढ़ रखने हेतु हर तरह से सहायता देने की व्यवस्था की। जगह-जगह दानशालाएँ, धर्मशालाएँ, प्याऊ, कुएँ, तालाब, उद्यान, औषधालय, पथिकाश्रम वगैरह बनवाकर उनके लिए प्रचुर द्रव्य का दान किया। इसके लिए सबसे महान कार्य सम्राट सम्प्रति ने यह किया कि आन्ध्र आदि अनार्य देशों में लोगों को धर्म सम्मुख करने और धर्ममार्ग में लगाने हेतु अपने सुभटों को प्रचारक के रूप में भेजा । कुछ ही अर्से में वे सब प्रान्त साधुओं के विहार योग्य और सुलभ बन गये, तब उन्होंने आचार्यश्री से प्रार्थना की - "भगवन् ! उन सुलभ अनार्य क्षेत्रों में जनता को धर्मोपदेश करके धर्म में सुदृढ़ करने हेतु साधुओं को भेजें।" वहाँ साधु पहुंचे और अनेक लोगों को धर्म-प्राप्ति हुई । इस प्रकार सम्प्रति राजा ने धर्म-प्राप्तिरूप परानुग्रह (जिसमें स्वयं धर्मप्राप्तिरूप अनुग्रह तो था ही) के लिए करोड़ो रुपयों का दान दिया तथा प्रतिमाएँ भराई। कर्मयोगी द्वारकाधीश श्रीकृष्ण ने भी द्वारकावासी अनेक धर्मप्रेमी भाईबहनों को दीक्षा लेकर संयम पालन करने के रूप में धर्म-प्राप्ति के लिए दलाली की। उन्होंने तीर्थंकर अरिष्टनेमि प्रभु से जब द्वारकानगरी के भविष्य में विनाश होने की बात सुनी तो उनके दिल में एक विचार तीव्रता से उठा - "मैं द्वारकानगरी में इस बात की घोषणा करवा दू कि जो द्वारकावासी भाई-बहन भगवान अरिष्टनोमि के चरणों में दीक्षा लेकर श्रमण धर्म का पालन करना चाहते हों, वे निश्चिन्त होकर दीक्षा ग्रहण करें। उनके पीछे जो भी परिवार रहेगा, उनकी
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy