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________________ ६२ दान : अमृतमयी परंपरा उज्जयिनी के सम्राट कुणालपुत्र सम्प्रति राजा पूर्व-जन्म में एक भिक्षुक थे। आचार्य सुहस्तिगिरि से प्रतिबोध पाकार वे जैन मुनि बन गये थे। किन्तु जिस दिन वे मुनि बने थे, उसी दिन रात में भयंकर अतिसार रोग हो गया और उसी रात को उनका शुभ भावनापूर्वक देहान्त हो गया। वे मरकर राजा कुणाल के यहाँ पुत्र रूप में उत्पन्न हुए । यही सम्प्रति उज्जयिनी के सम्राट बने । एक बार आचार्य सुहस्तिसूरि उज्जैन में पधारे हुए थे। शोभायात्रा नगर के आम रास्तों पर धूमधाम से निकल रही थी । आचार्य श्री सुहस्तिसूरि शोभायात्रा के साथ चल रहे थे। शोभायात्रा जब नगर के मुख्य मार्गों पर से होती हुई राजमहल के निकट पहुंची तो झरोखे में बैठे हुए सम्प्रति राजा टकटकी लगाकर आचार्यश्री की ओर देखने लगे । सम्प्रति राजा का चित्त आचार्यश्री की ओर अधिकाधिक आकर्षित होता गया। इसका कारण जानने के लिए सम्प्रति राजा गहरे मन्थन में पड गये। सोचते-सोचते राजा को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया, जिससे उन्हें अपने पूर्व-जन्म की सब बातें याद हो आई कि "मैं एक दिन भिखारी होकर दाने-दाने के लिए घर-घर भटकता था। किन्तु मुझे मनुष्य जन्म का महत्त्व बताकर संसार-विरक्ति का प्रतिबोध इन्हीं आचार्यश्री ने दिया और मैंने इनसे मुनि दीक्षा ग्रहण की, एक ही रात्रि में मेरा कल्याण हो गया । इनके परम अनुग्रह से मैं राजकुल में पैदा होकर आज राज-ऋद्धि का उपभोग कर रहा हूँ। अतः इस अनुग्रहरूपी ऋण का बदला मैं कैसे चुकाऊँ ?" यह सोचकर सम्राट सम्प्रति वहाँ से उठकर सीधे नीचे आये और आचार्यश्री के चरणकमल स्पर्श करके सविनय निवेदन करने लगे - ___ "भगवन् ! मैं आपका शिष्य हूँ।" आचार्यश्री ने कहा – “राजन् ! तुम्हारा कल्याण हो । तुम धर्म कार्य में रत बनो, धर्म से ही सब सम्पत्ति और पदार्थ मिलते हैं ।" सम्प्रति राजा 'धर्मलाभ' सुनकर निवेदन करने लगा - "भगवन् ! आप ही के अनुग्रह से मैंने यह राज्य प्राप्त किया है। कृपया, यह राज्य अब आप स्वयं लेकर मुझे कृतार्थ कीजिये।" आचार्यश्री ने उत्तर दिया - "यह प्रताप मेरा नहीं, धर्म का है। धर्म राजा, रंक सबका समान रूप से उपकार करता है। अतः जिस धर्म के प्रताप से यह सम्पत्ति उपार्जित की है, उसी धर्म की सेवा में यह व्यय करो, दान दो, जनता
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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