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दान की परिभाषा और लक्षण
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जब तक दान के साथ इन चारों में से किसी प्रकार का स्वानुग्रह नहीं होता, तब तक दान सच्चे अर्थ में दान नहीं होता, क्योंकि केवल देना दान नहीं है, उसके पीछे कुछ विचार होते हैं, भावना होती हैं, उसका उद्देश्य होता है, विचार किये बिना यों ही किसी को रूढिवश दे देना सिक्का फेंकना है - दान देना नहीं। अपनी वस्तु का दान देने और किसी के सामने वस्तु को फेंक देने में बहुत अन्तर है। इसलिए दान तभी सच्चे अर्थों में दान है, जब उसमें स्वानुग्रहभाव निहित होगा ।
परानुग्रह :
स्वानुग्रह के साथ-साथ कई आचार्यों ने दान की व्याख्या में परानुग्रह शब्द भी जोड़ा है। परानुग्रह का सीधा-सादा मतलब है – अपने से अतिरिक्त दूसरे का उपकार करना ।
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· एक आचार्य परानुग्रह का अर्थ करते हैं - अपने दान से दूसरों के रत्नत्रय की वृद्धि में सहायता करना 'परानुग्रह' है ।
दान देकर दूसरों के रत्नत्रय की उन्नति करना
एक अर्थ यह है
'परानुग्रह' है।
दूसरा एक अर्थ यह भी है - दान देकर दूसरों की धर्मवृद्धि में सहायता
रूप अनुग्रह करना ।
परानुग्रह का यह अर्थ भी होता है दूसरों पर आई हुई विपत्ति, निर्धनता, अभावग्रस्तता, प्राकृतिक प्रकोप की पीड़ा आदि निवारण करने का अनुग्रह करना ।
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परानुग्रह के पहले अर्थ के अनुसार किसी रत्नत्रयीधारी मुनि, जो धर्मात्मा हो, धर्मपालन कर रहे हों, सर्वस्व त्यागी हों, भिक्षाजीवी हों, उन्हें अपने रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के पालन के लिए आहार, वस्त्र, पात्र, औषध, ज्ञानदान आदि से सत्कारित करना, ताकि वे अपने शरीर की रक्षा करके रत्नत्र॑य में वृद्धि कर सकें, परानुग्रह है ।
सुखाविपाकसूत्र में सुबाहुकुमार आदि का वर्णन आता है। सुबाहुकुमार ने ऐसे उत्कृष्ट महाव्रतधारी सुदत्त अनगार को इसी बुद्धि से स्वानुग्रहपूर्वक दान