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________________ दान : अमृतमयी परंपरा उद्देश्य को पूर्ण करनेवाला नहीं होगा । दान के साथ हृदय न बदलें तो वह दान ही क्या ? ५८ तीसरे प्रकार का स्वानुग्रह है - अपने श्रेय (कल्याण) के लिए प्रवृत्त होना । व्यक्ति में जब सोया हुआ भगवान जाग जाता है तो वह सर्वस्व देकर अपरिग्रही बनकर कल्याणमार्ग में प्रवृत्त हो जाता है । I संत फ्रांसिस एक बहुत बड़े धनाढ्य के पुत्र थे । वे पहले अत्यन्त सुन्दर रेशमी वस्त्र पहना करते थे । एक बार एक भिखारी उनकी दुकान पर आया, वह फटे कपड़े पहने हुए था । उसे देखकर फ्रांसिस को दया आ गई । उन्होंने उसे पहनने के लिए कुछ रेशमी कपड़े देते हुए कहा - "लो भाई ! ये अच्छे कपड़े पहन लो।" भिखारी ने उत्तर दिया – “महाशय ! क्षमा करें यदि मैं इन रेशमी कपड़ो को पहनने लगूँगा तो फिर मुझे अपने भीतर बैठा हुआ परमात्मा नहीं दीखेगा, क्योंकि मेरी दृष्टि फिर इनकी चमक-दमक में ही उलझ जायेगी । तब इन कपड़ों और शरीर की संभाल में ही मेरी आयु समाप्त हो जायेगी। अपने परमात्मा का दर्शन कभी नहीं हो सकेगा ।" यह सुनकर फ्रांसिस ने कहा - "मुझे भी ऐसा ही अनुभव हो रहा है।" यह कहने के साथ ही उन्होंने वे रेशमी कपड़े फाड़ डाले और अपनी दुकान का करोड़ों रुपयों का सब माल गरीबों को दान में देकर स्वयं उस भिक्षुक के साथ हो गये । निस्परिग्रही संत बन गये। ईसाई संतों में सेंट फ्रांसिस बहुत ऊँचे दर्जे के संत हो गये हैं । चौथे प्रकार का स्वानुग्रह है - दान के माध्यम से अपने में दया, करुणा, उदारता, सेवा, सहानुभूति, समता, आत्मीयता आदि विशिष्ट गुणों का संचय करना । जब मनुष्य दान देता है तो मन में इस प्रकार के उच्च विचार आने चाहिए जो दया आदि सद्गुणों के पोषक हों। अगर दान देते समय, देने के बाद या देने से पहले लेनेवाले के प्रति सदविचार नहीं हैं या दया, आत्मीयता या सहानुभूति के विचार नहीं हैं, तो वह नाटकीय दान निकृष्ट हो जायेगा अथवा दान के साथ लेने वाले के प्रति घृणा की भावना है, उसे हीन समझकर या एहसान जताकर अभिमानपूर्वक दिया जाता है तो वह दान के लक्षण में कथित उद्देश्य को पूर्ण नहीं करता । इसलिए एक आचार्य ने स्वानुग्रह का अर्थ किया है कि अपने में पूर्वोक्त विशिष्ट गुणों को संचय करना स्वोपकार है ।
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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