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दान की परिभाषा और लक्षण
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दूसरा अर्थ है – अपने में धर्मवृद्धि करना स्वानुग्रह है । तीसरा अर्थ है - अपने श्रेय - कल्याण के लिए प्रवृत्त होना स्वानुग्रह
चौथा अर्थ है – दान के लिए अवसर प्राप्त होना स्वानुग्रह है ।
दान के साथ जब तक नम्रता नहीं आती, तब तक दान अहंकार या एहसान का कारण बना रहता है । इसलिए दान के साथ उपकृत भाव आना चाहिए कि मुझे अमुक व्यक्ति ने दान लेकर उपकृत किया ।
अनुग्रह दाता की नम्रवृत्ति का सूचक है, वह सोचता है - दान लेने वाले व्यक्ति ने मुझ पर स्नेह, कृपा अथवा वात्सल्य दिखाकर स्वयं मुझको उपकृत किया है, आदाता ने मुझ पर कृपा की है कि मुझे दान का यह पवित्र अवसर प्रदान किया है। इस प्रकार अनुग्रह शब्द के पीछे यही भावना छिपी है ।
दान का वास्तविक फल भी तभी मिल सकता है, जब दानदाता व्यक्ति 'के दिल में दान के साथ आत्मीयता हो, सहृदयता हो और लेने वाले का उपकार माना जाय कि उसने दान देने का अवसर दिया है या दान लेना स्वीकार किया
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वैदिक दृष्टि से कहें तो प्रत्येक मनुष्य को मन में यह विचार दृढ़तापूर्वक जमा लेना चाहिए कि मैं कुछ अन्नादि देता हूँ, वह भगवान का दिया हुआ है । अगर वह अभिमान करता है तो वह परमात्मा की दृष्टि में अपराधी है । यह भी एक प्रकार का स्वानुग्रह है ।
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दूसरे प्रकार का स्वानुग्रह है दान के द्वारा व्यक्ति के जीवन में धर्मवृद्धि का होना। धर्म का मतलब यहाँ किसी क्रियाकाण्ड या रूढ़ि परम्परा से नहीं है, अपितु जीवन में अहिंसा, सत्य, ईमानदारी, ब्रह्मचर्य एवं परिग्रहवृत्ति की मर्यादा समता आदि से है । व्यक्ति के जीवन में दान के साथ धर्म के इन अंगों का प्रादुर्भाव हो अथवा दुर्व्यसनों का त्याग हो, तभी समझा जा सकता है, उसका दान स्वानुग्रह कारक हुआ है । अन्यथा, दान देने से केवल प्रतिष्ठा लूटना, प्रसिद्धि प्राप्त करना, अपितु अपने जीवन में बेईमानी, शोषणवृत्ति, अन्याय, अत्याचार आदि पापकार्यों को न छोड़ना कोरी सौदेबाजी होगी। वह दान देने के