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दान : अमृतमयी परंपरा
"स्वपराऽनुग्रहार्थं दीयते इति दानम् ।' १
अपने और दूसरे पर अनुग्रह करने के लिए जो दिया जाता है, वह दान
“स्वपरोपकारार्थं वितरणं दानम् ।" २
स्व और पर के उपकार के लिए वितरण करना दान है I
"आत्मनः श्रेयसेऽन्येषां रत्नत्रयसमृद्धये । स्वपरानुग्रहायेत्थं यत्स्यात् तद्दानमिष्यते ॥'' ३
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अपने श्रेय के लिए और दूसरों के सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय की समृद्धि के लिए इस प्रकार स्व-पर अनुग्रह के लिए जो क्रिया होती है, वह दान
है।
इस प्रकार ये सब व्याख्याएँ तत्त्वार्थसूत्रकार के लक्षण को केन्द्र बनाकर उसके ईद-गिर्द घूमनेवाली व्याख्याएँ हैं।
अब हम क्रमश: इन पर विचार व विश्लेषण करें, जिससे स्पष्ट हो जायगा कि जैन दृष्टि से दान क्या है ?
सर्व प्रथम हम स्व- अनुग्रह के बारे में विचार करते हैं ।
अनुग्रह शब्द में यहाँ दान का उद्देश्य निहित है । किस प्रयोजन से कोई पदार्थ दिया जाय तब दान कहलाता है, यह बात 'अनुग्रह' शब्द में समाविष्ट हो जाती है। अनुग्रह का अर्थ उपकार करना होता है । अनुग्रह शब्द में स्व और पर दोनों का अनुग्रह अभिष्ट है । स्व और पर दोनों पर अनुग्रह करने की दृष्टि से अपनी वस्तु का त्याग करना दान बताया है ।
स्व- अनुग्रह का एक अर्थ यह है - अपने में (अपनी आत्मा में) दया, उदारता, सहानुभूति, सेवा, विनय, आत्मीयता, अहिंसा आदि विशिष्ट गुणों के संचय रूप (अथवा उद्भव ) उपकार करना स्वानुग्रह है ।
१. सूत्रकृतांग वृत्ति, श्रु. १ अ. ११ तथा उत्तराध्ययनसूत्र एवं कल्पसूत्र वृत्ति । २. जैन सिद्धान्त दीपिका ।
३. उपासकाध्ययन ७६६