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दान : अमृतमयी परंपरा
दिया था। सुबाहुकुमार का यह दान स्वपरानुग्रह बुद्धि में था।
इस प्रकार के और भी अनेक उदाहरण जैनागमों में मिलते हैं, जिन्होंने स्वानुग्रहपूर्वक विविध मुनिराजों को दान देकर उन पर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की वृद्धि रूप उपकार किया था।
श्रमण भगवान महावीर एक बार कौशाम्बी नगरी में १३ प्रकार की शर्तों का अभिग्रह लेकर विचरण कर रहे थे । वे अपने अभिग्रह (ध्येयानुकूल संकल्प) की पूर्ति के लिए प्रतिदिन नियमित समय पर कौशाम्बी नगरी के उच्च-नीच-मध्यम कुलों में आहार के लिए जाते थे, लेकिन कहीं भी उनका अभिग्रह पूर्ण न हो सका । आखिर वे घूमते-घूमते धनावह सेठ के यहाँ पधार गये। वहाँ राजकुमारी चन्दनबाला को मुण्डित मस्तक, हाथों में हथकड़ियाँ और पैरों में बेड़ियाँ पहनी तथा तीन दिन की उपवासी देखकर भगवान् महावीर ने उसी ओर पदार्पण किया । श्रमण भगवान महावीर को देखकर उसे अपार प्रसन्नता हुई कि मैं धनभाग्य हूँ जो तीर्थंकर जैसे महान् पात्र को दान दे रही हूँ पर उड़द के बाकुले जैसी तुच्छ वस्तु को देखकर उसकी आँखों में आँसू आ गये। . वास्तव में तो अपनी दशा और देय-द्रव्य को देखकर ही वह द्रवित हो गई। भगवान महावीर का अभिग्रह पाँच महीने और २५ दिन के बाद उस दिन फलित हो गया। राजकुमारी चन्दनबाला के हाथ से उन्होंने उड़द के बाकुले ग्रहण किये। लेकिन वह दान भगवान के शरीर पोषण तथा उसके फलस्वरूप उनके रत्नत्रय को समृद्ध बनाने के लिए अनुग्रहकारक हुआ और चन्दनबाला के लिए स्वानुग्रहकारक बना।
इसी प्रकार भगवान ऋषभदेव भी एक वर्ष से अभिग्रह धारण किये हुए थे। विनीता (अयोध्या) नगरी के प्रजाजन इस बात को जानते ही न थे कि मुनि को आहार कैसे दिया जाये ? फलतः उन्हें एक वर्ष तक निराहार रहना पड़ा । अकस्मात् विचरण करते-करते भगवान ऋषभदेव हस्तिनापुर पधार गये । वहाँ के राजा श्रेयांसकुमार को स्वप्न आया, जिसमें उन्होंने कल्पवृक्ष को अत्यन्त सूखा हुआ देखा, साथ ही अपने हाथ से सींचने पर उसे हरा-भरा देखा । श्री श्रेयांसकुमार ने उस स्वप्न पर बहुत अहापोह (विचार) किया, अतः उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हो गया, जिसमें उन्होंने पूर्व-जन्म के पितामह श्री ऋषभदेव को जान लिया । वे ही