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है। दान का अर्थ है त्याग । दान में सामान्य रूप से धन का त्याग है तो शील में स्त्री का, तप में शरीर का व भाव में मन का - विचारों का त्याग है, जो उत्तरोत्तर सूक्ष्म है । पर जो स्थूल धन आदि पदार्थों का भी त्याग नहीं कर सकता, वह सूक्ष्म का (मन का - विचारों का) त्याग कैसे कर पाएगा? स्थूल से प्रारंभ करना है, सूक्ष्म तक पहुंचना है।।
अतः एव धर्म-सिद्धि के पांच लक्षणों में भी सर्व प्रथम स्थान औदार्य को दिया गया है - जो दान का ही एक रूप है ।
तीन प्रकार के वीर में एक दानवीर है। कई लोग स्वभाव से ही उदार होते हैं - दानवीर होते हैं ।
कहा जाता है कि महाराजा भोज स्वभाव से ही दानवीर थे। कोई भी विद्वान कवि आदि ने कुछ भी नया श्लोक-नई कृति इत्यादि इधर सुनाया
और उधर अनर्गल दान ! रोज-रोज होता यह दान का सिलसिला मंत्री से देखा न गया, सोचाः ऐसा हुआ तो खजाना खाली हो जायेगा। पर, महाराजा को मना कैसे की जाय ?
कुछ सोच कर महामंत्री ने उद्यान की एक दिवार पर, जहां महाराजा रोज घुमने आते थे, लिखाः आपदर्थं धनं रक्षेत् । मुश्किल समय के लिए धन बचाना चाहिए।
दूसरे दिन भोज राजा ने यह पढा । तुरंत समझ गये : मुझे ही किसीने यह संदेश दिया है। पर महाराजा कोई कम नहीं थे। उन्होंने उसके नीचे लिखा : 'श्रीमतामापदः कुतः ?' 'श्रीमंत आदमीओं को मुश्किल समय किस प्रकार आ सकता है ?'
दूसरे दिन मंत्री ने लिखा : 'कदाचित् कुपिते दैवे ।' जब नसीब रुष्ट हो जाता है तब कभी श्रीमंतो को भी मुश्किलें आ सकती हैं।
____ महाराजा ने अगले दिन फिर लिखा : 'सञ्चितोऽपि विनश्यति ।' 'जब नसीब कुपित होता तब इक्कट्ठा किया हुआ धन भी नष्ट हो जायेगा । फिर, दान देने में क्या आपत्ति है ?'
मंत्री चूप हो गया ।