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दानवीर - उदार आदमी दान के हजार कारण बता सकता है तो उधर लोभी दान नहीं करने के भी हजारों कारण बता सकता है, लेकिन जीव को लोभी की बात तुरंत मन में बैठ जाती है ।
अनादि काल के लोभ के संस्कार हैं न ?
अतः एव दान मुश्किल है,
दुष्कर है ।
प्रीतम बहन के इस पुस्तक में जगह-जगह पर दान की महिमा गाई है । न केवल जैन - शास्त्र, अजैनों के भी विशाल प्रमाण में उद्धरण दिये गये है, जो बात को बहुत ही पुष्टि कारक बनाते हैं ।
प्रीतमबेन सिंघवी ने बहुत ही परिश्रमपूर्वक दानविषयक दृष्टान्त, अवतरण, तर्क, आगम-प्रमाण - इत्यादि सब कुछ दिये हैं । भाषा में न निरर्थक कहीं दीर्घ वाक्यावली है, न ही क्लिष्ट शब्द । इस प्रकार का दान - विषयक सार्वत्रिक संचय शायद ही कहीं देखने मिले ।
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अमुक वाक्य तो चित्त को चमत्कृत करनेवाले हैं । जैसे - "दान का अर्थ है कि स्व की मानी जानेवाली वस्तु पर से अपना मालिकाना हक्क छोड़ कर दूसरों को आनंद से अर्पित कर देना ।"
"कितनी अद्भुत है यह बात ? वस्तु का अपना स्वामित्व दूसरों को सौंपना - वह भी आनंदपूर्वक ! जब हम दान दें तब निरीक्षण करें : ऐसा सच में हो रहा है ?
तत्त्वार्थसूत्र का अवतरण दे कर लेखिका कहते है : 'स्वयं प्रकाशित हुए बिना दूसरे को प्रकाश कैसे दे सकते हैं ?'
आमतौर से हम समझते हैं कि दान दे कर हम दूसरे के उपर उपकार कर रहे हैं, लेकिन यहां पर कहते हैं कि अपनी आत्मा के उपर ही उपकार करने के लिए दान देना है ।
आगे पुस्तक में एक अच्छा वाक्य नज़र में आया: 'दान सिर्फ दान नहीं, हृदय में अनेक गुणों का आदान भी है ।'
सच्चे दान से सचमुच कौन से गुण नहीं आते ?