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॥ श्री आदिनाथाय नमः ॥
॥ श्रीपद्म जीत - हीर- कनक- - देवेन्द्र - कलापूर्ण-कलाप्रभसूरिगुरुभ्यो नमः ॥
धर्मस्यादिपदं दानम्
पुस्तक का प्रारम्भ ही पूज्य श्री हरिभद्रसूरिजी के वाक्य से होता है : धर्मस्य आदि-पदं दानम् ।
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धर्म का प्रथम सोपान है दान ।
बात भी सच है । बिना दान धर्म में प्रवेश ही कहां ?
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धन सार्थवाह ने श्रीधर्मघोषसूरिजी को घी का दान किया और समकित की प्राप्ति हुई । वही धन सार्थवाह आगे चलकर आदिनाथ भगवान बने । नयसार ने साधु भगवन्त को अन्न का दान किया और समकित की प्राप्ति हुई । वही नयसार आगे चल कर भगवान महावीर बने । मतलब हमारे प्रथम व अंतिम तीर्थंकर दान - कल्पवृक्ष के ही मधुर फल थे । तीर्थंकरों को भी धर्म-प्राप्ति दान से होती हो तो दूसरों की क्या बात करना ?
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किसी को भी अगर धर्म की प्राप्ति होती है तो दान से ही होती है ऐसा भी हम कह सकते । 'धर्मस्यादि-पदं दानम्' पूज्यश्री हरिभद्रसूरिजी का वचन भी इसका ही समर्थक है ।
दान सिर्फ धन या भोजन का ही नहीं होता, हर तरह का दान हो सकता है । मेघकुमार ने पूर्व भवं में खरगोश को 'जगह' का दान किया था । अवंती सुकुमाल इत्यादि ने भी साधुओं को वसति का दान दिया था । चार प्रकार के धर्म में सर्व प्रथम दान है, शील, तप आदि बाद में है । शील, तप और भाव दान से भिन्न है - ऐसा मत समझें, सच में तो दान का ही सब विस्तार