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________________ ३६ दान : अमृतमयी परंपरा बताया है । रयणसार में इसी बात का समर्थन स्पष्ट रूप से किया गया है - "जो मुणिभुत्तसेसं भुंजइ सो भुंजए जिणवद दिवं । संसारसारसोक्खं कमसो णिव्वाणवर सोक्खं ॥ " १ २ - "दाणं पूजामुक्खं सावय धम्मे, ण सावया तेण विणा ।' - जो भव्य जीव मुनिवरों को आहार देने के पश्चात् अवशेष, अन्न को प्रसाद समझकर सेवन करता है, वह संसार के सारभूत उत्तम सुखों को पाता है और क्रमशः उत्तम मोक्ष सुख को भी प्राप्त कर लेता है । सुपात्र को आहारादि चार प्रकार का दान देना श्रावक का मुख्य धर्म है, जो प्रतिदिन इन दोनों को मुख्य कर्त्तव्य मानकर करता है, वही श्रावक है, धर्मात्मा व सम्यग् दृष्टि है । दान के बिना श्रावक, श्रावक नही रहता इस पर से जाना जा सकता है कि दान जब जीवन में अनिवार्य कर्त्तव्य है तो उसे प्राथमिकता दिया जाना कथमपि अनुचित नहीं है । दान को पहला स्थान केवल इस लोक में ही नहीं, देवलोक में भी दिया जाता है । यहाँ से आयुष्य पूर्व करके जो भी व्यक्ति स्वर्ग में पहुँचता है, उसके लिए पहला प्रश्न यह अवश्य पूछा जाता है - " किं वा दच्चा, किं वा भुच्चा, किंवा किच्चा, किं वा समाचरित्ता ?" अर्थात् यह मनुष्यलोक से स्वर्ग में आया हुआ जीव वहाँ क्या दान देकर, क्या उपभोग करके, क्या कार्य करके अथवा क्या आचरण करके आया है ? मतलब यह है कि देवलोक में पहुँचते ही सर्वप्रथम और बातों का स्मरण न करके दान के विषय में ही पूछा जाता है, दान की ही बात सबसे पहले याद की जाती है, अन्य बातें बाद में पूछी जाती हैं 1 इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि महापुरुषों ने दान को धर्म के चार अंगों या मोक्ष के चार मार्गों में पहला स्थान क्यों दिया है ? १. रयणसार २२ । २. रयणसार ।।
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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