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________________ दान का महत्त्व और उद्देश्य 'दानपर्व अक्षयतीज' जगत अनादि-अनन्त है, ऐसे ही वृष कर्म, दाता के संग पात्र है, दान नियति का धर्म | ३७ संसार में जो भी कृत्य होता है आवश्यकता के अनुसार होता है, प्रकृति के अनुरूप होता है तो स्वभाव या धर्म कहलाता है और प्रकृति के प्रतिकूल होता है तो विभाव या अधर्म अर्थात् पाप कहलाता है। दान देना व दान लेना भी एक ऐसा ही उदात्त कृत्य है । बादल जल शोषित करके संग्रह कर लेता है और जब गर्मी से पृथ्वी-वनस्पति, जन-जीवन व्याकुल होने लगता है, वर्षा कर उन्हें सुख शीतलता प्रदान करता है तथा स्वयं भी हल्का हो निर्मल सौम्यता प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार मानव धन का अर्जन और संग्रहण करता है और जब वह जरूरत मन्द को देखता दया और करुणा से भर जाता है । उसकी आवश्यकता की पूर्ति करने को तत्पर हो जाता है। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है परन्तु जब मानवं सुसंस्कृति तथा उदात्त उत्कृष्ट परम्पराओं को आत्मसात करता है तो यह स्वाभाविक प्रकृति भूख पर खाओ, बचे तो खिलाओ पर चलती है । 'दान देना' उतना ही उत्कृष्ट कृत्य है जितना सेवा वैयावृत्ति, प्रेम - वात्सल्य, दया- करुणा की प्रवृत्ति । क्योंकि श्रम और धन जब दोनों मिल जाते हैं कर्म में पूर्णता तभी आती 1 है। कर्मयुग के आरंभ में मानव ने कर्म पुरुषार्थ का मर्म जाना । धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थ के बाद मानव के परम लक्ष्य या परम पुरुषार्थ के रूप में मोक्ष पुरुषार्थ अर्थात् आत्मा को परमात्मा बनाने जन्म-मरण के चक्कर से सदा-सदा के लिए मुक्ति पा लेने का भी लक्ष्य निर्धारित हुआ । इसके जनक या प्रवर्तक थे आदि तीर्थंकर ऋषभदेव | आगमानुसार इस कल्पयुग के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव गृहस्थ जीवन में मानव को धर्मनीति, अर्थनीति, कामनीति के विधि विधान को बताया, उसे जीवन जीने की कला त्रैवर्ग (धर्म, अर्थ, काम) के पुरुषार्थ की रीति नीति बताई तथा जीविकापार्जन हेतु कृषि, मसि, असि, वाणिज्य, शिल्प और विद्या की विवेचना की । त्रैवर्ग-क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र निर्धारित किये जो रूप, ने 1
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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