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________________ दान का महत्त्व और उद्देश्य ३५ उत्तर दिया है – “वह यों है कि ये गृहस्थलोग हमेशा विषय- कषाय के अधीन हैं, इस कारण इनके आर्त्त - रौद्रध्यान उत्पन्न होते रहते हैं । इसलिए निश्चयरत्नत्रय रूप शुद्धोपयोग परम धर्म का तो इनके ठिकाना ही नहीं है, यानी अवकाश ही नहीं है।" तात्पर्य यह है कि गृहस्थ के द्वारा हुआ आरम्भजनित पापों की शुद्धि के लिए दानधर्म जितना आसान होता है, उतना शील, तप और भाव नहीं । इसलिए दान को गृहस्थ के लिए परम धर्म कहा है और यही कारण उसको प्राथमिकता का है। वैदिक धर्म के व्यवहार पक्ष का प्रतिपादन करनेवाले मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में गृहस्थ के लिए प्रतिदिन दान की परम्परा चालू रखने हेतु 'पंच वैवस्वदेवयज्ञ' का विधान है । अर्थात् गृहस्थ के द्वारा होनेवाले आरम्भजनित दोषों को कम करने के लिए भोजन तैयार होते ही सर्वप्रथम गाय, कुत्ता, कौआ, अग्नि एवं अतिथि इन पाँचों के लिए ग्रास निकाला जाये। शील, तप या भाव • का विधान वहाँ सभी गृहस्थों के लिए नहीं किया गया है । इस दृष्टि से भी दान को प्रथम स्थान दिया गया हो तो कोई आश्चर्य नहीं । इसीलिए परमात्मप्रकाश में स्पष्ट कहा है – गृहस्थों के लिए आहारदान आदि परम धर्म हैं । दान को प्राथमिकता देने का एक कारण यह भी सम्भव है कि जगत् में निःस्पृह, त्यागी, साधु, सन्त या तीर्थंकर आदि ज्ञान दर्शन - चारित्र का उपदेश, प्रेरणा या मार्गदर्शन न देते या न दे तो मनुष्य दुर्लभबोधि, बर्बर, नरभक्षी या पिशाचवत् अति स्वार्थी बना रहता, अफ्रीका के नरभक्षी मनुष्यों को मानव (इंसान) बनाने में वहाँ के साधुओं ( पादरियों व धर्मगुरुओं) ने बहुत कष्ट साध्य तप किया है । परन्तु उनमें जो भिक्षाजीवी या गृहस्थों के दान पर आश्रित साधु सन्त हैं, उनको जीवन की आवश्यक वस्तुएँ गृहस्थ लोग दान में देकर पूर्ति करें तभी वे साधु अपने शरीर, मन, बुद्धि आदि को स्वस्थ और सशक्त रखकर संघ (समाज) सेवा का उत्तम महान कार्य कर सकते हैं। इस प्रकार के मुनियों, श्रमणों या साधु-सन्तों को आहारादि दान देकर गृहस्थ को शेष अन्न को प्रसाद के रूप में सेवन करना चाहिए तथा ऐसे सत्पात्र को दान देना श्रावक का मुख्य धर्म १. गृहस्थानामाहारदानादिकमेव परमो धर्मः । - परमात्मप्रकाश, टीका २/९/१
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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