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दान : अमृतमयी परंपरा
वह संकट मिट सकता है। जबकि तप, शील या भाव से समाज को ऐसे प्राकृतिक दुःख निवारण में प्रत्यक्ष में उतना सहयोग. या सहारा नहीं मिलता । समाज के अनाथ, अपाहिज, दीन-दुःखी या अभावग्रस्त व्यक्ति को दान से ही तुरन्त सहारा मिल सकता है, उनका संकट मिटाया जा सकता है।
छट्ठा कारण दान को प्रथम स्थान मिलने का यह प्रतीत होता है कि समाज में व्याप्त विषमता, अभाव, शोषण या असमानता को मिटाने के लिए दान का होना अनिवार्य है। समाज की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में उनकी धनराशि व्यय होती रहे, जैसे कि औषधालय, विद्यालय, अनाथालय आदि संस्थाओं को दिया जाता रहे तो समाज में व्याप्त असन्तोष और प्रतिक्रिया दूर हो सकती है, समाज में सुव्यवस्था और सुखशान्ति व्याप्त हो सकती है। श्रमण भगवान महावीर ने इसी दृष्टि से गृहस्थ साधकों के लिए अतिथिसंविभागवत या यथासंविभागवत निश्चित किया है, ताकि गृहस्थ अपनी आय एवं साधनों में से यथोचित संविभाग उत्कृष्ट साधकों, सेवाव्रती संस्थाओं एवं अभावग्रस्त व्यक्तियों के लिए करे । लेकिन भूमिका का सार तो परिणाम पाना है।
गृहस्थ के लिए दान अनिवार्य तथा प्रतिदिन की शुद्धि का कारण होने से उसे महाधर्म भी कहा है। पद्मनन्दिपंचविंशतिका में स्पष्ट कहा गया है -
"नानागृहव्यतिकराजित पाप पुजैः, खञ्जीकृतानि गृहिणो न तथा व्रतानि । उच्चैः फलं विदधतीह यथैकदाऽपि,
प्रीत्यातिशुद्ध मनसा कृतपात्रदानम् ॥ २/१३।।"
- लोक में अत्यन्त विशुद्धमनवाले गृहस्थ के द्वारा प्रीतिपूर्वक पात्र के लिए दिया गया दान जैसे उत्पन्न फल को देता है, वैसा फल घर की अनेक झंझटों से उत्पन्न हुए पापसमूहों के द्वारा कुबड़े यानि शक्तिहीन किये हुए गृहस्थ के व्रत नहीं देते।
इस विषय में आचार्यों ने और अधिक स्पष्टीकरण किया है - प्रश्न उठाया गया है कि दानादि ही श्रावकों (गृहस्थों) का परम धर्म कैसे है ? इसका १. कस्मात् स एव परमोधर्म इति चेत् निरन्तरविषयकषायक्ष धीनतया आर्त्तरौद्रध्यानरतानां निश्चयरत्नत्रयलक्षणस्य शुद्धोपयोगपरमधर्मस्यावकाशो नास्तीति ।।
- परमात्मप्रकाश, टीका २/१११