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दान का महत्त्व और उद्देश्य पालन करता है या कुशील का सर्वथा त्याग कर दिया है । जबकि दान का आचरण सबको प्रत्यक्ष दिखाई देता है। तप और शील कदाचित् सक्रिय नहीं भी होते, जबकि दान सदा सक्रिय होता है और भाव तो सदा ही परोक्ष, अज्ञात और निष्क्रिय रहता है। भाव का प्रत्यक्ष दर्शन तो सिवाय मनः पर्यायज्ञानी या केवलज्ञानी के और किसी को हो नहीं सकता । इस कारण भी दान को सबसे पहला नम्बर दिया गया है।
तीसरा कारण यह है कि मनुष्य जब से इस दुनियाँ में आँखें खोलता है, तब से आँखें मूंदने तक यानी मनुष्य जीवन प्राप्त होने से मृत्यु-पर्यन्त दान की प्रक्रिया जीवन में चल सकती है, व्यक्ति दान दे सकता है, ले सकता है; जबकि शील, तप, या भाव की प्रक्रिया इतनी लम्बी, दीर्घकाल तक या जन्म से लेकर मृत्यु तक नहीं चलती । शील की प्रक्रिया ज्यादा से ज्यादा चलती है तो समझदारी प्राप्त होने से लेकर देहान्त तक चल सकती है। जबकि दान की प्रक्रिया तो व्यक्ति के मरणोपरान्त भी उसके नाम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी तक चलती रहती है। तपश्चर्या की प्रक्रिया भी ज्यादा से ज्यादा समझदारी प्राप्त होने से देहावसान तक चलती है, वह भी प्रतिदिन नहीं चलती और भावों की प्रक्रिया भी बीच-बीच में रोग, चिन्ता या लोभादि अन्य कारण आ पडने पर उसकी धारा टूट भी जाती है। इसलिए दीर्घकाल तक, जिन्दगी भर और कभी-कभी कई पीढ़ियों तक दान की धारा ही अखण्ड रूप से बह सकती है । इस दृष्टि से भी दान को प्राथमिकता दी गई है।
चौथा कारण यह है कि बालकों में या पारिवारिक व सामाजिक जीवन में उदारता, नम्रता, परदुःखकातरता, सेवा, सहानुभूति एवं सहृदयता के संस्कार दान से ही जग सकते हैं, दान के आचरण से ही बालकों में उदारता आदि के सुसंस्कार बद्धमूल हो सकते हैं, परिवार एवं समाज में भी दूर-दूर दानाचरण के पवित्र परमाणु अपना प्रभाव डालते हैं, सारे वायुमण्डल को दान का आचरण स्वच्छ बना देता हैं, जबकि तप, शील या भाव के संस्कार सहसा नहीं पडते, न ही छोटे बच्चे उन संस्कारों को ग्रहण कर सकते हैं।
____ पाँचवा कारण दान को प्राथमिकता देने का यह है कि दान से समाज को सहयोग मिलता है। समाज पर दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, बाढ़, सूखा, भूकम्प आदि प्राकृतिक प्रकोप आ पडने पर दान से ही उस आपत्ति का निवारण हो सकता है,