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दान : अमृतमयी परंपरा दिया गया है ? इसके पीछे भी कुछ न कुछ रहस्य है, जिसे प्रत्येक मानव को समझना अनिवार्य है।
दान को प्राथमिकता देने के पीछे रहस्य यह है कि शील, तप या भाव के आचरण का लाभ तो उसके आचरणकर्ता को ही मिलता है, अर्थात् जो व्यक्ति शील का पालन करेगा, उसे ही प्रत्यक्ष लाभ मिलेगा, इसी प्रकार तप और भाव का प्रत्यक्ष फल भी उसके कर्ता को ही मिलेगा, जबकि दान का फल लेने वाले और देने वाले दोनों को प्रत्यक्ष प्राप्त होता है । यद्यपि शील,तप और भाव का फल परोक्ष रूप से कुटुम्ब या समाज को भी मिलता है, किन्तु प्रत्यक्ष फल इन्हें नहीं मिलता । जबकि दान देने से लेनेवाले की क्षुधा शान्त होती है, पिपासा बुझ जाती है, उसकी अन्य आवश्यकताओं या इच्छाओं की पूर्ति होती है, उसके दुःख का निवारण होकर सुख में प्रत्यक्ष वृद्धि होती है और देनेवाले को भी आनन्द, सन्तोष, औदार्य, सम्मान एवं गौरव प्राप्त होता है। यदि दान लेनेवाले को कोई लाभ न होता तो वह उसे लेता ही क्यों ? इसी प्रकार दान देनेवाले को भी प्रत्यक्ष कोई लाभ न होता तो वह भी देता ही क्यों ? दान का लाभ दाता और संगृहीता दोनों को साक्षात् प्राप्त होता है।
- ज्ञानीजनों ने मनुष्य के धर्म रूप कर्त्तव्य में दान को प्रथम रखा है। निःस्पृह भाव से दिये गये दान से जीव के परिणाम कोमल बनते हैं। दान बिना का मानव दयाहीन हो करके बाद के दूसरे कर्तव्य का पालन नहीं कर सकता।
वास्तव में दान में धन तो दूर की वस्तु है। उसमें कुछ छोड़ने का है, वह कोई तेरे देह जितना नजदीक भी नहीं है और साथ आनेवाला भी नहीं है। धन की मूर्छा घटाने के लिए दान उत्तम कर्त्तव्य है। परिग्रह के पाप के मैल को दूर करने के लिए दान तो स्नान है। कभी-कभी दान का प्रत्यक्ष लाभ समाज को या अमुक पीड़ित, शोषित या अभावग्रस्त मानव को मिलता है। इसी कारण दान को धर्म के चार अंगों में या मोक्ष के चतुर्विध मार्ग में सर्व प्रथम स्थान दिया गया है।
दूसरी बात यह है की शील का पालन या तप का आचरण कभी-कभी प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता, आम जनता सहसा नहीं जान पाती कि अमुक व्यक्तिने तप किया है या अमुक आभ्यन्तर तप करता है तथा अमुक व्यक्ति शील का