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दान का महत्त्व और उद्देश्य के द्वारा व्यक्ति अपने संचित कर्मों का क्षय कर सकता है, दानादि गुणों को अपनाकर अपने मन, वचन, काया को पवित्र बना सकता है; दुर्गति में जाने से अपने आपको रोक सकता है। उस शुद्ध धर्म के चार चरण महापुरुषों ने बताए हैं, जिनके आचरण से ही मनुष्य उपर्युक्त स्थिति प्राप्त कर सकता है। आचरण ही मनुष्य के जीवन को उन्नति के पथ पर ले जाता है। धर्म के ये चार चरण दान, शील, तप और भाव, जिनके सहारे से धर्म अभीष्ट लक्ष्य की और त्वरित गति कर सकता है।
यद्यपि धर्म के चारों अंग महत्त्वपूर्ण हैं, धर्मरथ को चलाने के लिए इन चारों की समय-समय पर जरूरत पड़ती है। किन्तु दान न हो तो शेष तीनों अंगों से काम नहीं चल सकता । दान के अभाव में शेष तीनों चरणों से नम्रता और उदारता सक्रिय रूप नहीं ले सकती। दान मानव-जीवन में स्वार्थ, लोभ, तृष्णा
और लालसा का त्याग कराता है, मानव हृदय को वह करुणा, परोपकार और पर-सुख वृद्धि में सहायता के लिए प्रेरित करता है। जैसे खेती करने से पहले किसान खेत की धरती पर उगे हुए कंटीले झाड-झंखाडे काँटों, कंकर-पत्थरों, फालतू घास आदि को उखाड़कर उस धरती को साफ, समतल और नरम बना लेता है, तभी उसमें बोये हुए बीज अनाज की सुन्दर फसल दे सकते हैं। वैसे ही मानव की हृदयभूमि पर उगे हुए तृष्णारूपी घास, लालसा, स्वार्थ और अहंतारूपी काटें, कँटीले झाड़ झंखडों एवं कंकड-पत्थरों को उखाड़कर उसे नम्र एवं समरस बनाने के लिए दान की प्रक्रिया की जरूरत है, जिससे अन्य शील, तप
आदि साधनाएँ भलीभाँति हो सकें । धर्म भावों की फसल तैयार हो सके । निष्कर्ष यह है कि हृदयभूमि को नम्र व समरस बनाकर बोये हुए दानबीज से धर्म की उत्तम फसल तैयार होती है ।
... इस दृष्टि से देखा जाये तो धर्म के चार अंगों में सबसे महत्त्वपूर्ण और आवश्यक अंग दान है, वही शेष तीनों अंगों में तीव्र गति पैदा कर सकता है। दान की प्राथमिकता के कारण :
मोक्ष के चार प्रकार बताये गये हैं, जिन्हें हम धर्म के चार अंग कह सकते हैं, उनमें दान को प्राथमिकता दी गई है। प्रश्न यह होता है कि इन चारों में से शील, तप या भाव को पहला स्थान न देकर दान को ही पहला स्थान क्यों