SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३० दान : अमृतमयी परंपरा शीलपालन भी नहीं होता और आरम्भयुक्त लोगों के हृदय में शुभ भाव पैदा होना भी कठिन है, क्योंकि भाव सदा मन-मस्तिष्क के स्वाधीन होने पर ही उत्पन्न होता है। व्यापार आदि की चिन्ता में उलझे हुए मन-मस्तिष्क में उत्तम भाव कहाँ से उत्पन्न हो सकते हैं ? इस पर से समझा जा सकता है कि उपर्युक्त चतुर्विध मोक्षमार्ग में से कौन सा मार्ग आसान और सर्वजन सुलभ है ? जब तप, शील और भाव सबके लिए सुगम और सुलभ नहीं हैं, तो फिर दान ही एक ऐसा मार्ग है, जो सुगम भी है, सर्वजन सुलभ भी है। दान एक छोटा- -सा बालक भी कर सकता है, एक वृद्ध भी कर सकता है, एक युवक भी कर सकता है, एक महिला भी कर सकती है। भोगी एवं गृहस्थ सभी के लिए दान का मार्ग आसान है, अल्प- श्रम - साध्य है, असम्भव भी नहीं है। दान एक ऐसा राजपथ है जिस पर आसानी से चलतां हुआ मनुष्य अपनी मंजिल के निकट पहुँच सकता है । इसलिए दान का मार्ग संसार के सभी मानवों के लिए सुलभ है। दान के लिए तपस्या की तरह कोई कष्ट सहना नहीं पडता, न उसके लिए पूर्ण कठोर ब्रह्मचर्य -पालन की ही अनिवार्यता है और न ही प्रतिक्षण उत्तम भावों से ओतप्रोत होने की आवश्यकता है । तप, शील और भाव सबसे प्रतिदिन नहीं हो सकते, तपस्या कोई करेगा, तभी किसी अमुक दिन या अमुक तिथियों को, उसके बाद उसे पारणा करना ही होगा, आजीवन तपस्या नहीं हो सकती; लेकिन दान तो बच्चे, बूढ़े, महिला और युवक सभी के लिए प्रतिदिन सम्भव है इसी प्रकार भावों का सातत्य भी सबके लिए आसान नहीं है, दान का सातत्य फिर भी सम्भव है, कम से कम प्रतिदिन तो दान का क्रम चल ही सकता है 1 इसलिए मोक्ष के चार मार्गो में दान सर्वसुलभ, आसान और अल्पकष्ट - साध्य होने से मानव - यात्री के लिए सर्वश्रेष्ठ राजमार्ग है । इसलिए उपदेशतरंगिणी में दान को इस भूमण्डल में सर्वश्रेष्ठ बताया 'पृथिव्यां प्रवरं दानम् ।’" धर्म के चार अंगों में दान प्रथम क्यों ? मोक्ष मार्ग को प्राप्त करने के लिए धर्म ही उत्तम साधन है। क्योंकि धर्म
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy