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दान का महत्त्व और उद्देश्य
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लिए अपना मूलभूत आत्म स्वरूप प्रगट करना जरूरी है। अपना आत्म स्वरूप प्रगट होने के बाद ही अजरामर शाश्वत जीवन मिलता है और अपनी शाश्वत जीवन की इच्छा पूरी होतीहै ।
(२) जीव की दूसरी इच्छा ज्ञान प्राप्त करने की है - अपन सारे भारत का भ्रमण करके आए हों, छ: खण्ड की पृथ्वी की प्रदक्षिणा करके आए हों, फिर भी नया जानने की (ज्ञान प्राप्त करने की) इच्छा पूरी नहीं होती । अखिल ब्रह्माण्ड का चक्कर लगा ले फिर भी ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा पूर्ण नहीं होती। अपने अंदर एक ज्ञान ऐसा बैठा हुआ है कि जिसके द्वारा सर्व जीवों और सर्व पुद्गल के तीनों काल के सब पर्यायों को एक समय में जान सकता है। यह लोकालोक प्रकाश ज्ञान प्रगट हुए बिना जीव की ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा कभी भी पूरी नहीं होती । इसलिए 'ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा पूर्ण करने के लिए केवलज्ञान प्राप्त करना जरूरी है।।
(३) जीव की तीसरी इच्छा सुख प्राप्त करने की है - जीवों को ऐसे सुख की इच्छा है कि मेरे से ज्यादा सुख किसी के पास नहीं होना चाहिए । अपने पास एक क्रोड़ है, किन्तु पास वाला सवा क्रोड़ का मालिक हो तो अपन एक क्रोड़ का सुख नहीं भोग सकते । इसीलिए अपन को ऐसा सुख चाहिए कि जो मिलने के बाद कभी जाए नहीं और जिसमें थोड़ा भी दुःख का मिश्रण न हो। ऐसे सुख प्राप्ति की तीव्र इच्छा जीव को होती है, लेकिन वह कभी पूरी नहीं होती। अनंत अव्याबाध सुख का परम भण्डार आत्मा में पूर्णतया रहा हुआ है। सिद्ध के जीवों को किसी को कम या ज्यादा सुख नहीं होता । सभी का सुख समान होता है । वो प्राप्त होने के बाद कभी भी जाता नहीं है, उस सुख के बीच में कभी भी दुःख नहीं आता। सिद्ध भगवंतों के जैसा ही अनंत सुख अपनी आत्मा में रहा हुआ है । ऐसा अपना आत्मस्वरूप प्रगट करें तब ही सुख प्राप्त करने की इच्छा परिपूर्ण होती है।
___(४) जीव की चौथी इच्छा स्वतंत्र बनने की है - अपन परतंत्रता के चंगुल से छुटने के लिए रात दिन प्रयत्न करते हैं। सभी तरह की बाह्य स्वतंत्रता प्राप्त करने के पश्चात् भी इस शरीर का बंधन इस प्रकार का है कि शरीर के लिए रोटी चाहिए । रोटी के लिए अनाज चाहिए, अनाज के लिए पैसा