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दान : अमृतमयी परंपरा चाहिए। गेहूँ पैदा करने वाला चाहिए । रोटी को बनाने वाला चाहिए । इस तरह जब तक शरीर है परतंत्रता रहने ही वाली है । इसलिए अपना मूल स्वरूप अशरीरपने को प्रगट करना है।
(५) जीव की अन्तिम इच्छा - सभी मेरे आधीन रहने चाहिए। इस इच्छा की तृप्ति के लिए जगत् में विश्व युद्ध हुए हैं, लेकिन वह कभी पूरी नहीं होती । एक केवलज्ञान की अवस्था ही ऐसी है कि केवलज्ञानी अपने ज्ञान में एक हजार वर्ष के बाद ऐसी घटना होगी, या अमक जीवात्मा एक हजार वर्ष के बाद यह कार्य करेंगे ऐसा देखा हुआ होता है उसी के अनुसार घटना बनती है।
और वह जीवात्मा उसी के अनुसार करती है। इसलिए वास्तव में तो समग्र विश्व को केवलज्ञानियों ने अपने ज्ञान में देखा है उसी के अनुसार संसार चलता है। उनके ज्ञान के आधीन समग्र विश्व है, ऐसा एक नय के दृष्टिकोण से कह सकते हैं। इसलिए अपन केवलज्ञान प्रगट करें तो अपने ज्ञान के आधीन समग्र विश्व चलेगा।
इस तरह अपना मूल रूप जो अनंतज्ञान, अव्याबाध सुख, अनंत आनंद, अनंत शक्तिमय और शाश्वत है, वह प्रगट हो तभी सभी प्रयोजन सिद्ध होता है। इसीलिए आत्मस्वरूप प्रगट करना वही परम ध्येय-लक्ष्य है, या पूर्ण आत्म चैतन्य को प्रगट करना ही जीवन का लक्ष्य है। इसी लक्ष्य को पूर्ण करने का अवसर हमे मानव जीवन में मिलता है। मोक्ष प्राप्ति में गृहस्थ के चार धर्म :
मानव को अपनी जीवन-यात्रा मोक्षरूपी लक्ष्य की ओर करनी है। मोक्ष तक पहुँचने के भी महापुरुषों ने चार धर्म बताये हैं । आचार्य विनय विजयजी महाराजसा. ने शान्त सुधारस भावना में इन्हीं चार धर्मों का इस प्रकार निरूपण किया है -
"दानं च शीलं च तपश्च भावो, धर्मश्चतुर्धा जिनबान्धवेन। निरूपितो यो जगतां हिताय, स मानसे मे रमतामजस्त्रम्॥"१
१. शान्तसुधारस