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दान विचार निर्जरा । संवर और निर्जरा - दोनों ही मोक्ष के हेतु हैं, संसार के विपरीत, मोक्ष के कारण हैं । तब, दान से संसार ही मिला, मोक्ष नहीं । दान का फल मोक्ष कैसे हो सकता है ? इस मान्यता के अनुसार दान, दया, व्रत और उपवास आदि पुण्य बन्ध के ही कारण हैं । क्योंकि ये सब शुभ भाव हैं।
इसके विपरीत एक दूसरी मान्यता भी रही है, जिसके अनुसार दान भी और दया भी - दोनों पाप के कारण हैं। पाप के कारण तभी हो सकते हैं, जबकि दोनों को अशुभ भाव माना जाये । अतः उनका तर्क है कि दया सावध होती है। जो सावध है, वह अशुभ होगा ही। जो अशुभ है, वह निश्चय ही पाप का कारण है। दान के सम्बन्ध में उनका कथन विभज्यवाद पर आश्रित है। उन लोगों का तर्क है कि दान दो प्रकार का हो सकता है - संयतदान और असंयतदान । साधु को दिया गया दान धर्मदान है। अतएव उसका फल मोक्ष है। क्योंकि साधु को देने से निर्जरा होती है और निर्जरा का फल मोक्ष ही हो सकता है, अन्य कुछ नहीं । परन्तु असंयतदान अधर्मदान है। उसका फल पाप है। पाप कभी शान्ति का कारण नहीं हो सकता । यह पापवाद की मान्यता है। - पुण्यवाद और पापवाद के अतिरिक्त एक धर्मवाद की मान्यता भी रही है। इसके अनुसार दान भी धर्म है. और दया भी धर्म है। दान यदि पाप का कारण होता, तो तीर्थंकर दीक्षा से पूर्व वर्षीदान क्यों करते ? दान परम्परा की स्थापना न करके निषेध ही करते । ऋषभदेव से लेकर महावीर पर्यन्त सब तीर्थंकरों ने दान दिया था। उन लोगों का तर्क यह है कि दान की क्रिया ममता
और परिग्रह को कम करती है। ममता और परिग्रह का अभाव ही तो धर्म है। जितना दिया, उतनी ममता कम हुई और जितना दिया, उतना परिग्रह भी कम ही हुआ है। अतः दान से धर्म होता है। ममता और परिग्रह को कम करने से तथा उसका अभाव करने से दान धर्म ही हो सकता है, पाप कभी नहीं । यह धर्मवादी मान्यता है।
पुण्यवाद, पापवाद और धर्मवाद की गूढ ग्रन्थियों को सुलझाने का समय-समय पर प्रयास हुआ है, परन्तु कोई भी मान्यता जब रूढ़ हो जाती है, तब वह मिट नहीं पाती। किसी भी मान्यता को मिटाने का प्रयास भी स्तुत्य नहीं कहा जा सकता। मानव-जाति के विचार के विकास की वह भी एक कड़ी है, उसकी अपनी उपयोगिता है, अपना एक महत्त्व है।