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________________ दान : अमृतमयी परंपरा सच्चा नमन होता है, तभी सच्चा परोपकार होता है और तभी सच्चा स्वउपकार होता है। २० शास्त्रों में कहा है कि हजारों में से एकाद मनुष्य उपकार करनेवाला (परोपकारी) मिलता है - किसी भी अपेक्षा या आकांक्षा के बिना । किन्तु इस उपकार का जाननेवाला (कृतज्ञ) तो लाखों में एकाद मिलता है। दूसरे शब्दों में कहें तो दूसरे पर उपकार करनेवाले जीव तो कम ही होते हैं, लेकिन किये हुए उपकार को जानने वाले जीव तो कम से कम ही होते हैं । - ऋण का कृतज्ञता अर्थात् अपने पर किये हुए उपकार को जानकरके आभारवश होते हैं वे (gratitude). यह एक बहुत बड़ा गुण है । 'तुमने मेरे पर इतना उपकार किया है, मैं तुम्हारा बहुत आभारी हूँ, आपके उपकार का बदला मैं नहीं चुका सकता' इतनी हद तक जो विनम्रता बता सके, इतनी कृतज्ञता से जो रंग जाता है, उसी का संसार में से निस्तार होता है, वे ही संसारसागर तैर जाते हैं । - संक्षेप में कहें तो 'दूसरे जीवों का मेरे पर अनहद उपकार है, मुझे इंस ऋण को चुकाना है, इस जन्म में इतना ज्ञान, इतना बोध, इतनी समझ मिली हैं, ' ऐसे सद्गुरू, ऐसे संयोग मिले हैं तो जल्दी से जल्दी सभी का ऋण - कर्ज चुका दूँ (By paying off the debt) और संसार से मैं मुक्त हो जाऊँ' यह जो ऋणमुक्ति की भावना है, इस उच्च भावना से जो कुछ दान दिया जाता है उसका उच्चतम फल मिलता है, उससे परंपराए मुक्ति मिलती है । दान की मान्यता पर मतभेद दान की मान्यता के सम्बन्ध में जो मतवाद की आग कभी प्रज्वलित हुई थी, उसके तीन विस्फोटक परिणाम सामने आये (१) दान पुण्य का कारण है । (२) जिस दान में स्वार्थ आदि कारण होता है वह दान पाप का कारण है, और (३) दान धर्म का कारण है । जो लोग दान को शुभ भाव मानते हैं, उनके अनुसार दान से पुण्य होगा और पुण्य से सुख । जो दान को अशुभ भाव मानते हैं, उनके अनुसार दान से पाप होगा, पाप से दुःख । शुभ उपयोग पुण्य का हेतु है, और अशुभ उपयोग पाप का । पुण्य और पाप दोनों आश्रव हैं, संसार के कारण हैं। उनसे कभी धर्म नहीं हो सकता । धर्म है, संवर । धर्म है, - - -
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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