________________
दान विचार
___ यहा बात काफी गहराई से सोचने जैसी है । दूसरे के उपकार को स्वीकार किये बिना, किया गया परोपकार वह तो अहंकार को पुष्टि करने का, बढ़ाने का साधन है । जब तक कर्ताभाव है वह अहंकार है।
इसलिए आत्महित को ध्यान में रखकर जागृतिपूर्वक ऐसा सोचें कि अभी जो अवसर मिला है, समझ मिली है, सद्गुरु का संयोग हुआ है ऐसा अवसर फिर कब प्राप्त होगा ऐसी समझपूर्वक - ‘इन अनंत जीवों का मेरे पर जो जो उपकार हुए हैं इन सबका ऋण चुकाने के लिए मैं इस जन्म का सदुपयोग करू' - ऐसा भाव जब आए तब की कृतज्ञता और परोपकार दोनों शब्दों का भावार्थ समझ में आया ऐसा कह सकते हैं ।
__ कृतज्ञता यह पहला गुण है। यह होता है तभी सच्चा परोपकार होता है और इन दोनों को जोडने वाली मैत्री भावना है।
. "मैत्रीभावनु पवित्र झरणु मुझ हैया मां वह्या करे, . शुभ थाओ आ सकल विश्वनुं ओवी भावना नित्य रहे । '
चार भावनाओं- मैत्री, प्रमोद, करुणा और उपेक्षा (माध्यस्थ) – इसमें पहली मैत्री भावना है। तो यह मैत्री भावना कहाँ से आई ? 'इस जगत के सर्व जीवों मेरे मित्र हैं, सबके साथ मेरी मैत्री है' पर यह बोलने मात्र से मैत्री भावना नहीं आ जाती।
लेकिन जगत के सर्व जीवों के प्रति कृतज्ञता का भाव हो – एकेन्द्रिय से लगाकर पंचेन्द्रिय तक । इतनी समझ मन में होनी चाहिए कि यह जो सब्जी, फल, अनाज जो खाता हूँ उन जीवों का भी मेरे पर उपकार है। यह पानी जो मैं पीता हूँ इसमें जलकाय जीवों का भी मेरे पर उपकार है। यह जो अग्निकायतेजस्काय जो मुझे प्रकाश, उष्मा प्रदान करते हैं उन जीवों का भी मेरे पर उपकार है। ये जो वायुकाय जीवों हैं, जो स्वयं नाश हो जाते हैं लेकिन मुझे श्वास लेने में मदद करते हैं, उन जीवों का भी मेरे पर उपकार है। .. ऐसी समझ जब पैदा हो, ऐसी भावना जब हृदय में आए तब कृतज्ञता का भाव प्रकट होता है। तब इन असंख्य जीवों के उपकार तले दबे हुए है ऐसा महसुस होता है । तब इन सर्व जीवों के प्रति मैत्री भाव होता है। तभी इन सर्व जीवों का ऋण चुकाने का विचार आता है। तभी इन सभी उपकारी जीवों को