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दान : अमृतमयी परंपरा
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जी सके और आर्त्तध्यान से बच सके । जहाँ जरूरी हो वहाँ देना, जिसको जरूरत हो उसको देना यह पर उपकार हुआ। इसमें कहीं भी दया, उपकार, बदला, ऐसी कोई अपेक्षा नहीं होती है। ऐसे दान का फल अच्छा मिलता है ।
(६) ऋणमुक्ति :
यह सबसे ऊँची भावना का और समझपूर्वक का दान है । अनेक जीवों का ऋण यानी कर्ज ले करके यह जीव जगत में आया है । अनादिकाल से असंख्य जीवों का मेरे पर उपकार है। उनका ऋण चुकाने के लिए मैं किसी भी जीव के लिए मददरूप होऊं तो मेरा इतना कर्ज कम हुआ, मेरा इतना ऋण चुका । कृतज्ञतापूर्वक की ऐसी उच्च भावना से किया हुआ दान अति उत्तम फल देता है।
कृतज्ञता अर्थात् अपने लिए किया हुआ कार्य जानना । कृतज्ञता का स्वीकार यानी किसी ने मेरे पर उपकार किया है, किसी का मेरे पर उपकार है यह जानना और स्वीकार करना । यह अपन जानेंगे, स्वीकार करेंगे तभी अपने दिल में इस ऋण में से मुक्त होने की इच्छा होगी। इस संसार से छूटने के लिए, आत्मा को सभी कर्मों से मुक्ति दिलानी हो तो अपने खाते में जमा उधार खाता (debit/credit) बराबर करना हो और खाता बंध करना हो तो इस जगत का ऋण चुकाना पडेगा। समझपूर्वक खुशी से चुका देना पड़ेगा ।
कृतज्ञता का स्वीकारपूर्वक, ऋणमुक्ति के भाव से किया हुआ दान परम्पराए मोक्ष प्रदान करता है ।
जैसे कि 'नमस्कार महामंत्र' में 'नमो' शब्द नमन है, यह क्या बताता है ? कृतज्ञता । उनका मेरे पर उपकार है यह दर्शाने के लिए मैं उनको नमन करता हूँ ।
'प्रतिक्रमण करते समय प्रत्याख्यान (पच्चक्खाण) करते हैं कि इर्ष्या, निंदा, राग, द्वेष नहीं करेंगे, फिर भी अगर उसकी मात्रा कम नहीं हुई तो प्रतिक्रमण मात्र रोजिंदी क्रिया (Daily routine) ही कहलाएगी, समझ बिना की । इसको सच्चा प्रतिक्रमण नहीं कह सकते ।
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इसलिए जैसे प्रत्याख्यान बिना का सच्चा प्रतिक्रमण नहीं होता है उसी तरह कृतज्ञता की समझ और स्वीकार बिना सच्चा परोपकार भी नहीं होता ।