________________
दान विचार
१७
का दिखावा करके, उस पर उपकार किया है ऐसा भाव रख करके दान करना यह अपने 'मान' कषाय को, अहंकार को पुष्ट करना है । पुण्यकर्म करने के भ्रम में पापकर्म बांध लेंगे। अज्ञान से पापकर्म बंधता है। बांधने वाला जीव जान भी नहीं पाता और कर्म बांधे उसका यह उदाहरण है ।
(२) उपकार :
कुछ लोग उपकार भाव से मदद करते है कि 'आज मैं इसको दान दूँ या मदद करूँ या पढाऊँ तो यह व्यक्ति मेरे उपकार से दबा हुआ रहेगा । भविष्य में मेरे काम आएगा या मैं इसका उपयोग कर सकूँगा ।' ऐसी आशा से किया हुआ दान भी तुच्छ होगा कारण कि सामने वाले के पास से कुछ प्राप्त करने की भावना है, अपेक्षा है। तृष्णा भी लोभ का ही एक रूप है ।
(३) प्रायश्चित :
अमुक धनवान के बिरुद को धारण करने वाले नहीं करने लायक या उल्टे सीधे करके पैसा अर्जित करते हैं, कुछ अन्याय, अनीति से कमाकर श्रीमंत बने होते हैं, ऐसे लोग अपनी लक्ष्मी का व्यय समाज के कमजोर वर्ग के लिए . करते हैं या होस्पिटल, अनाथाश्रम या विधवाश्रम वगैरह में व्यय करते हैं । ऐसे लोग प्रायश्चित के रूप में दान करते हैं कि 'मैंने बहुत पाप किया है उसमें से कुछ इस तरह धुल जाएँगे' ऐसी भावना से करते रहते हैं । (४) फर्ज़- कर्त्तव्य :
अमुक लोग कर्त्तव्य के रूप में अपनी फर्ज़ समझकर दान करते रहते हैं। 'समाज के प्रति भी अपनी कुछ फर्ज है। ऐसा समझ करके समाज के कमजोर वर्ग को मदद रूप होते हैं। इसमें दया, उपकार, अहंकार का भाव नहीं होता है किन्तु कर्त्तव्यपालन समझ करके करते हैं ।
गृहस्थ के जो छ नित्यकर्म कहे हैं उसमें से अंतिम कर्म 'दान' है जो गृहस्थ अपना कर्त्तव्य समझ करके करता रहता है ।
(५) स्व-पर उपकार :
स्व यानी अपने पर और पर अर्थात् दूसरे पर ऐसे दोनों के उपकार के लिए दान करते हैं । स्वउपकार यानी अपना ममत्व उतने अंश में कम हो, संतोष गुण प्रकट हो और परउपकार यानी दूसरे को सहायता मिले, दूसरे भी संतोषपूर्वक