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________________ १६ दान : अमृतमयी परंपरा दान करने का हेतु दान करने के पीछे अलग-अलग हेतु होते हैं। कितनेक सामने वाले पर दया आने से या उपकार करने की भावना से दान करते हैं। कितनेक लोग अपनी अन्याय की, अनीति की कमाई के पाप को धोने के लिए प्रायश्चित के रूप में दान करते हैं। कुछ लोग अपनी फर्ज समझ कर दान करते हैं । वे धनवान होने से समाज के कमजोर वर्ग के प्रति अपना कर्तव्य है ऐसा समझ करके दान करते हैं। कुछ लोग स्व-पर-उपकार अर्थात् अपना ममत्व घटे और संतोष का गुण प्रगटे तथा दूसरे को मदद मिले और उनके सद्गुण खिले इस प्रयोजन अर्थात् हेतु से दान करते होते हैं। बहुत कम लोग 'ऋणमुक्ति' के भाव से दान करते हैं। अपन जानते ही हैं कि भाव बिना की हुई क्रिया का फल बहुत अल्प और तुच्छ होता है। क्रिया के साथ भाव होना बहुत जरूरी है। .. अनंत लब्धिनिधान गौतमस्वामी ने श्रीपाल कथा में श्रेणिक राजा को चार प्रकार से धर्म बताया है : दान, शील, तप और भाव । उसमें दान को प्रथम स्थान में रखा है लेकिन वह दान भाव के साथ होना चाहिए । इसीलिए अपने जो दान करते हैं उसमें कौन सा भाव मिला हुआ है ? किस प्रीति के वश होकर अपन दान करते हैं ? और कितनी समझपूर्वक अपन यह कार्य करते हैं ? यह सब समझना जरूरी है, कारण कि जैसी भावना होगी वैसा फल प्राप्त होगा। (१) दया : दान करते समय यदि यह विचार आए कि "यह बिचारा गरीब है, अनाथ है, निराधार है इसलिए मैं इस पर दया करता हूँ' तो यह दान फलता नहीं है। सामनेवाले को दीन, अनाथ, बिचारा, गरीब, तुच्छ समझ करके, दयाभाव
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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