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दान : अमृतमयी परंपरा भारत के वैदिक षड्दर्शनों में एक मीमांसा दर्शन ही पुण्यवादी दर्शन कहा जा सकता है। उसकी मान्यता है कि यज्ञ से पुण्य होता है, पुण्य से स्वर्ग मिलता है, स्वर्ग में सुख है। पुण्य क्षीण होने पर फिर संसार है। मोक्ष की स्थिति में उसे जरा भी रुचि नहीं है। यज्ञ से, तप से, जप से और दान से पुण्य होता है, यह इसी मीमांसा दर्शन की मान्यता रही है। यज्ञ नहीं करोगे, तो पाप होगा और यज्ञ करोगे, तो पुण्य होगा। पाप और पुण्य की मीमांसा करना ही मीमांसा दर्शन का प्रधान ध्येय रहा है । दान पर सबसे अधिक बल भी इसी दर्शन ने दिया है। इस दर्शन की मान्यता के अनुसार ब्राह्मण को दान देने से सबसे बड़ा पुण्य होता है। श्रमण परम्परा के दोनों सम्प्रदाय - जैन और बौद्ध कहते हैं कि ब्राह्मण को दिया गया दान पुण्य का कारण नहीं है। वह पापदान है, वह धर्मदान नहीं हो सकता । मीमांसा दर्शन भी जैन श्रमणों को और बौद्ध भिक्षुओं को दिये गये दान को पाप का कारण मानता है, धर्म का नहीं । इस प्रकार की मान्यताओं ने दान की पवित्रता को नष्ट कर डाला । अपनी मान्यताओं में आबद्ध कर दिया । अपनों को देना धर्म और दूसरों को देना पाप इसी का परिणाम है। ..
वेद-विरोधी दर्शनों में एक चार्वाक दर्शन ही यह कहता है कि न पुण्य है और न पाप । न दान करने से पुण्य होता है और नहीं करने से न पाप होता है। पाप और पुण्य - यह लुब्धक लोगों की परिकल्पना है, अन्य कुछ नहीं । न पाप है, न पुण्य है, न लोक है और न परलोक है। जो कुछ है, यहीं है, अभी है, आज ही है, कल कुछ भी नहीं। उसकी इस मान्यता के कारण ही चार्वाक दर्शन में दान पर कुछ मीमांसा नहीं हो सकी । दान पर विचार का अवसर ही वहाँ पर उपलब्ध नहीं है। वर्तमान भोग ही वहाँ जीवन है।
वह किस तरह से पर्याप्त गिना जाता है।
जो दान किसी भी प्रकार की अपेक्षा रहित है, मूर्छा को नष्ट करने के लिए है । अहंकार भाव रहित है । पर द्रव्य होने के कारण त्यागने योग्य है । ऐसी दान की भावना परम्परा से मुक्ति के मार्ग का साधन बनती है।
द्रव्य दान गृहस्थ तक सीमित भले ही हो फिर भी वह त्याग भावना का कारण बनता है।