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दान : अमृतमयी परंपरा
दीन दरिद्र भी, पथ के भिखारी तक भी दीक्षित होते और साधना करते थे। इसी श्रृंखला में एक बार राजगृह का एक दीन लकड़हारा भी विरक्त होकर मुनि बन गया था। साधना के क्षेत्र में तो आत्मा की परख होती है, देह, वंश और कुल की नहीं । एक बार महामंत्री अभयकुमार कुछ सामन्तों के साथ वन-विहार के लिए जा रहे थे, मार्ग में उन्हें वही लकड़हारा मुनि मिल गए तो उन्होंने तुरन्त घोड़े से उतरकर मुनि को भक्तिभाव से विनम्र वन्दना की । घूमकर पीछे देखा तो सामन्त लोग कनखियों में हँस रहे थे, अन्य पास में खड़े नागरिक भी मजाक के मूड में थे।
__महामंत्री अभय को सामन्तों और नागरिकों के हँसने का कारण समझते देर न लगी। फिर भी उसने पूछा तो एक सामन्त ने व्यंगपूर्वक कहा – “जो कल दरदर की ठोकरें खानेवाला दीन लकड़हारा था, वही आज बहुतं बडा त्यागी और राजर्षि बन गया है कि मगध का महामंत्री भी उसके चरणों में सिर झुका रहा है । धन्य हैं, इसके त्याग को कि महामंत्री तक को अश्व से नीचे उतरकर प्रणाम करना पड़ा।"
सामन्त के इस तीखे व्यंग और त्याग के उक्त संस्कारहीन उपहास पर अभयकुमार को रोष तो आया पर उन्होंने मन ही मन पी लिया । अभयकुमार जानते थे कि सामन्त ने मगध के महामंत्री का नहीं, ज्ञातपुत्र महावीर की क्रान्तिकारी त्याग-परम्परा का उपहास किया है । भोग का कीट त्याग की ऊँचाई की कल्पना भी कैसे कर सकता है ? एक गम्भीर अर्थयुक्त मुस्कान के साथ अभयकुमार आगे बढ़ गए। सब लोग वनविहार का आनन्द लेकर अपने-अपने महलों में लौट आए।
दूसरे दिन महामंत्री ने राजसभा में एक-एक कोटि स्वर्ण-मुद्राओं के तीन ढेर लगवाए और खड़े होकर सामन्तों से कहा कि "जो व्यक्ति जीवनभर के लिए कच्चे पानी और अग्नि के उपयोग तथा स्त्री-सहवास का त्याग करे, उसे मैं ये तीन कोटि स्वर्ण-मुद्राएँ उपहार में दूँगा।" सभा में सन्नाटा छा गया। सभी एक दूसरे के मुँह की ओर ताकने लगे । “इन तीनों के त्याग का अर्थ है, एक तरह से जीवन का ही त्याग, फिर तो साधु ही न बन गए....... और तब इन स्वर्णमुद्राओं का करेंगे क्या? न न बाबा, ये त्याग बड़े कठिन हैं.....।" - एक