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दान विचार आवश्यकता है । लोभी मन दान तक ही पहुँचता है, किन्तु वस्तु होते हुए भी उसके प्रति अनासक्त मन त्यागसहित दान को अपनाकर क्रमशः धर्म के उच्च शिखर तक पहुंच जाता है । केवल वस्तु का दानकर्ता अर्जित धन को सहसा छोड़ नहीं सकता, छोडता है तो भी साथ में बदले की या अधिक लेने की भावना मन में संजोता है, वह त्याग करके भोग करने की कला नहीं जानता, जबकि दान के साथ उस वस्तु के प्रति ममत्व, स्वत्व, स्वामित्व तथा दान के अहंत्व आदि का त्याग करना दान की कला को चरितार्थ करना है। कोरा दान वाला पात्र नहीं देखता, वह विधि, द्रव्य एवं उद्देश्य का विचार नहीं करता; जबकि ममत्वादि त्याग सहित दान वाला पात्र, विधि, द्रव्य तथा दान के स्वपरानुग्रहरूप उद्देश्य को देखता है। सिर्फ दान वाला धन को धूल या हाथ का मैल नहीं समझता, जबकि त्याग के साथ दान करने वाला यही सोचता है - धन तो कूड़ा-कर्कट है, धूल है, मैल है, इसका क्या दान करना है ? यह तो . श्वासोच्छ्वास की तरह अनायास क्रिया है, इसमें दान देने का मान ही नहीं होना
चाहिए । इसलिए सच्चे माने में दान त्यागरूपी काँटों से सुरक्षित गुलाब के फूल के समान है। बिना त्याग के दानरूपी गुलाब को सुगन्धरूप फल से रहित होने का खतरा बना ही रहता है। ____ एक दूसरे दृष्टिकोण से त्याग और दान का विश्लेषण करें तो दान की
अपेक्षा त्याग बढ़कर मालूम देगा । एक व्यक्ति अविवेकपूर्वक किसी प्रकार का पात्र, देश, काल, स्थिति, विधि, द्रव्य आदि का कोई विचार न करके किसी व्यक्ति को परम्परागत रूप से गायें दे देता है। किसी को घोड़े या हाथी दे देता है। पर लेनेवाला इतने पशुओं को संभाल नहीं सकता, न उन्हें पूरा चारा-दाना दे पाता । तो ऐसे दान से क्या मतलब सिद्ध हुआ? इसकी अपेक्षा एक व्यक्ति इन सब सोने, चादी, सिक्के, जमीन, जायदाद आदि सबको मन से भी त्याग करके मुनि बन जाता है । उस व्यक्ति का त्याग दान की अपेक्षा बढ़कर है।
श्रमण भगवान महावीर के पंचम गणधर आर्य सुधर्मा स्वामी के चरणों में जहाँ बड़े-बड़े राजा, राजकुमार, श्रेष्ठी, श्रेष्ठीपुत्र आकर मुनि-दीक्षा लेते थे, वहाँ १. जो सहस्सं सहस्साणं, मासे मासे गवं दए।
तस्सावि संजमो सेओ, अदिन्तस्स वि किंचण ॥ - उत्तरा., अ. ९/४०