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दान : अमृतमयी परंपरा कहा जाता है। बुद्ध का त्याग कहा जाता है। अपने देते हैं उसको दान कहा जाता है, त्याग नहीं कहा जाता।
. त्याग का उच्च हेतु तो स्व का परम कल्याण (परमार्थ) साधकर के दूसरे का कल्याण (परार्थ) करने का होता है । स्व का साधे बिना दूसरे का साधने निकलने वाले आत्मवंचना करते हैं । शास्त्र में कहा है - 'स्वार्थभ्रंशो हि मूर्खता।' अपने स्व के अर्थ में से भ्रष्ट होना यह मूर्खता है। स्वार्थ शब्द के अर्थ को समझे बिना ही अपन ने उसके अर्थ को खराब कर दिया है, बिगाड़ दिया है। स्वार्थ (स्व+अर्थ) साधे बिना परार्थ (पर+अर्थ) कर ही नहीं सकते । यह अपने को समझना चाहिए । महावीर ने पहले स्वार्थ को साधा, फिर परार्थ किया । बुद्ध ने भी पहले स्वार्थ को साधा, फिर परार्थ किया। सच्चा त्याग इसी को कहा जाता है। जिन्होंने अपना ही नहीं साधा वो दूसरे का क्या कल्याण कर सकते हैं ?
__ स्वार्थ शब्द का अर्थ खराब नहीं, अच्छा है। जगत् के महापुरुषों ने, संतों ने, पहले अपना कल्याण (साधा) किया, स्वयं प्राप्त किया, स्वयं को प्रकाशित किया, फिर दूसरे को प्रकाश दिया। स्वयं प्रकाशित हुए बिना दूसरे को प्रकाश कैसे दे सकते हैं ? त्याग के साथ दान ही सर्वांगीण दान :
वैसे देखा जाय तो त्याग के साथ दान ही सर्वांगपूर्ण दान कहलाता है। कोरा दान(देना) कोई महत्त्वपूर्ण नहीं होता । त्याग रहित दान प्राणरहित शरीर जैसा है। केवल दान तो किसी स्वार्थ, भय, लोभ या परम्परागत रूढ़िवश भी हो सकता है। केवल दान से व्यक्ति के जीवन में बदले में कुछ लेने की भावना भी हो सकती है। कोरे दान से अहंत्व, ममत्वादि पाप का त्याग नहीं होने से पाप रोग जाता नहीं, आत्मशुद्धि होती नहीं, अपितु दान से तो पाप का केवल ब्याज ही चुकता है, मूल तो ज्यों का त्यों बना रहता है । इसलिए केवल दान (त्यागरहित) का स्वभाव ममतालु होता है, जबकि त्यागयुक्त दान का स्वभाव होता है दयालु । इसे यों भी कहा जा सकता है कि त्यागयुक्त दान का निवास धर्म के शिखर पर है, जबकि त्यागरहित कोरें दान का निवास धर्म की तलहटी में है। धर्म की तलहटी से शिखर तक पहुँचने के लिए दान के साथ त्याग की