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दान विचार
दान और त्याग में फर्क 'अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ।' – तत्त्वार्थसूत्र
वाचकवर्य श्री उमास्वातिजी के अनुसार 'स्व' के अनुग्रह के लिए जो त्याग किया जाता है वह दान है। देकर के भूल जाना यह भी दान की विशिष्ट प्रद्धति है। जैसे वणथली (सौराष्ट्र) के सोमचंदभाई ने अहमदाबाद के सवचंदभाई झवेरी पर अपनी रकम जमा न होते हुए भी एक लाख रुपये की हुण्डी लिख दी, जिसे सवचंदभाई ने सोमचंदभाई पर संकट का अनुमान करके हुण्डी सिकार दी थी, लेकिन जब सोमचंदभाई की आर्थिक स्थिति अच्छी हो गई तो वह ब्याज सहित सारी रकम सवचंदभाई को वापस देने अहमदाबाद गया । उस समय सवचंदभाई की आर्थिक स्थिति बिगड़ी हुई थी, फिर भी उन्होंने वह रकम यह कहकर नहीं ली कि हमारे यहाँ आपके नाम से कोई रकम नहीं है । बहीखाते टटोलने पर पता लगा कि वह रकम खर्च खाते लिखी गई थी। आखिर वह रकम दोनों की ओर से धर्मकार्य में लगाई गई। यह भी दान का एक नमूना है। ऐसा कृतदान जीवन में कर्त्तव्य की भावना जाग्रत होने पर ही चरितार्थ होता है। ऐसा इतिहास तो जैनशासन के लोगों ने भारत की गली गली में लिखा है। सिर्फ इन सबकी आज लिखीत जानकारी इतनी नहीं मिलती।
दान की विस्तृत चर्चा करने से पहले दान और त्याग के बीच क्या फर्क है ? उसको समझ लेते हैं।
दान अर्थात् आंशिक (Partial) त्याग । त्याग यानी सर्वस्व का (Total) दान । अपने पास जो हो उसमें से अपने लिए रख करके, बाकी में से अमुक भाग दूसरे को देते हैं तो उसको दान कहा जाता है, लेकिन अपने अधिकार (मालिकी) में कुछ भी नहीं रखकरके, सर्वस्व छोड़ दे या दे देते हैं तो उसको त्याग कहा जाता है। त्यागी को कोई भी पदार्थ, व्यक्ति या परिस्थिति के प्रति ममत्वभाव अर्थात् मेरापना नहीं होता है, अधिकार भाव(मालिकीभाव) नहीं होता है, कर्ताभाव नहीं होता है । जबकि दान करने वाले को ममत्वभाव, अधिकारभाव, कर्ताभाव होता है।
तीर्थंकरों ने पहले दान किया फिर त्याग । इसलिए महावीर का त्याग