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दान : अमृतमयी परंपरा जैन धर्म में दान की अनोखी महिमा है । दान प्रत्येक जीव देता है और देना चाहिए । त्यागी, तपस्वी और संत पुरुषों ने संसार का त्याग किया होने से वे धन का दान नहीं कर सकते किन्तु वे ज्ञानदान कर सकते हैं । सिद्ध गति के जीव जब मोक्ष को प्राप्त करते हैं तब निगोद में दुःख भोगते एक जीव को 'अभयदान' देकर उपकारक बनते हैं । 'धर्मस्य आदि पदम् दान ।' इस शास्त्र वचन के अनुसार धर्म की प्रथम सिढी 'दान' कहा है । जो शक्ति होते हुए भी दान धर्म का पालन नहीं करता वह 'दानांतरायादि' कर्म बाँधते हैं। इसी तरह शक्ति होते हुए भाव बिना का दान देते हैं वह संपूर्ण लाभ प्राप्त करने का अधिकारी नहीं बनता ।
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मनुष्य के आध्यात्मिक विकास में जैन धर्म का योगदान महत्त्वपूर्ण है। उसमें 'दान' भावना ने विविध प्रकार से योगदान दिया है। आज भी दान के प्रतीक रूप में विविध स्थलों आहारदान के स्थान ( भोजनालयों), मन्दिरों, उपाश्रयों, होस्पिटल, शैक्षणिक संस्थाएँ वगैरह देखने को मिलता है । इसलिए जैन धर्म में दान का अनेक रूप से महत्त्व है ।
जैन परम्परा के पुराणों में आदिपुराण, उत्तरपुराण, हरिवंशपुराण, त्रिषष्ठिशलाकापुरुष चरित आदि में दान समन्बन्धी उपदेश तथा कथाएँ प्रचुर मात्रा में आज भी उपलब्ध है । बाईबल में दान के विषय में कहा गया है "तुम्हारा दायाँ हाथ जो देता है उसे बायाँ हाथ न जान सके ऐसा दान दो ।" कुरान में दान के सम्बन्ध में कहा है "प्रार्थना ईश्वर की तरफ आधे रास्ते तक ले जाती । उपवास महल के द्वार तक पहुँचा देता और दान से हम अन्दर प्रवेश करते हैं। योगी की शोभा ध्यान से होती है, तपस्वी की शोभा सयंम से होती है, राजा की शोभा सत्य वचन से होती है, और गृहस्थ की शोभा दान से होती है।
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तप, शील, भाव सबके लिए सुगम और सुलभ नहीं है । दान ही एक ऐसा मार्ग है जो संसार के सभी मानवों के लिए सुलभ है, सर्वश्रेष्ठ है ।
मनुष्य जब कमाने लायक होता है तब से वह अपने अंत समय तक धनोपार्जन के लिए कठिन परिश्रम करता रहता है। उसके लिए वह रात-दिन एक करता है लेकिन सच तो यह है कि जब जाता है तब वह अपने साथ कुछ