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दान विचार
सुनकर बली दुःखी हुआ । बली ने कहाँ 'तीसरा पाँव मेरे शरीर पर रखो ।' विष्णु ने वैसा किया अपने पाँव से दबाकर उसको पाताल में पहुंचा दिया। फिर वरदान दिया कि - "वैवश्वत मन्वन्त' पूरा हो तब तक तू यहाँ रहना, मैं तुझे फिलहाल अभी उपेन्द्र बनाता हूँ और आठवें सावरणी मन्वन्तर में तू स्वर्ग का इन्द्र होगा।
इसके उपरांत दानवीर जगडुशाह ने दुर्भिक्ष में प्रजा को छ महिने तक चले उतने अन्न का दान किया था । जैन धर्म में अभयदान के अनेक दृष्टान्तों जानने लायक हैं। मेघरथ राजा अत्यन्त दयालु थे। देव ने उनकी परीक्षा लेने के लिए क्रौंच पक्षी का रूप लिया और राजा के पास जाकर हाथ में रहे हुए पक्षी को मांगा । मेघरथ राजा ने वह नहीं दिया किन्तु उसके बदले में अपना शरीर सौंपा।
राजा श्रेणिक के पुत्र मेघ कुमार ने पूर्व के हाथी के भव में ढाई दिन तक पाँव ऊपर रखकर खरगोश को बचाया था। नेमनाथ भगवान ने उग्रसेन राजा के दरवाजे तक बारात लेकर गये किन्तु पशुओं की पुकार सुनकर वापिस तोरण से लौट गए और पशुओं को अभयदान दिया।
. वसति का अर्थात रहने का दान भी महत्त्व का गिना जाता है। कौशांबी नगरी के राजा शतानिक की बहन जयंती ने अनेक बार मुनिओं को (जगह का) वसति लाभ दिया था । ज्ञानदान के लिए महाराजा कुमारपाल ने पू. आ. हेमचन्द्राचार्य सूरिश्वरजी महाराज के उपदेश से २१ ज्ञानभण्डारों का निर्माण किया। ३०० लहियाओं को शास्त्रों ताडपत्रों पर लिखने के लिए रखे थे।
वस्तुपाल तेजपाल ने १८ करोड़ खर्च करके ज्ञान भण्डारों का निर्माण कराया और २१ आचार्य पदवी प्रदान करवाई ।
पूणिया श्रावक रोज अपनी दो दोकडा की कमाई में से देव की, गुरु की और साधार्मिक की अपूर्व भक्ति करते थे। अनंत लब्धिनिधान गौतमस्वामी ने १५०० तापसों को खीर द्वारा पारणा कराया था।
जैनधर्म में दान के विषय में अनेक दृष्टांतों प्राप्त होते हैं जिसका विस्तृत विवेचन आगे किया है।