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दान : अमृतमयी परंपरा दिन एक करोड़ और आठ लाख सोने की मुहरों का दान देते । समग्र वर्ष दौरान प्रभु ने कुल तीन अरब अट्ठयासी करोड़ अस्सी लाख सोनेमुहरों का दान दिया।
ऐसे प्रभु ने जगत का दारिद्रय दूर किया। भगवान के हाथ से जो लोग दान लेते उनका असाध्य रोग मिट जाता । प्रभु ने सर्वस्व दान में देकर सर्वस्व का त्याग किया, परन्तु इन्द्र ने स्वयं उनके कंधे पर एक देवदूष्य वस्त्र डाला था। दीक्षा के बाद जब विहार करते थे तब रास्ते में उनके पिता का मित्र सोम नामका एक ब्राह्मण आया और कहने लगा मैं जन्म से महादरिद्र हूँ। आपने जब दान से अनेक लोगों का दरिद्रय दूर किया था तब मैं दूसरे देशों में भटक रहा था। मैं कुछ नहीं लिए बिना घर गया तो मेरी पत्नी ने मेरा तिरस्कार किया । आप अब भी मुझे कुछ देंगे इस आशा से यहाँ भेजा है। प्रभु महावीर ने कहा'अब तो मैं निश्किंचन हुआ हूँ, परन्तु मेरे कंधे पर जो यह अमूल्य वस्त्र है इसका आधा भाग तू लेकर जा।" ब्राह्मण उस वस्त्र का आधा भाग लेकर हर्षित होता हुआ वापिस लौटा। और फटी हुई किनार को ठीक कराने के लिए बुनकर के पास गया। बुनकर ने पूछा कि 'तू ऐसा अमूल्य अर्धवस्त्र कहाँ से लाया?" तब ब्राह्मण ने सच्ची बात बतायी । बुनकर ने ब्राह्मण को समझाया कि तू शीघ्र प्रभु के पीछे जा, कारण कि चलते-चलते महावीर का बाकी का आधा वस्त्र काँटे में फसकर गिर जाएगा । वो निस्पृह मुनि उसको लेने के लिए खड़े नहीं रहेंगे इसलिए तू लेकर आ जाना । फिर दोनों टुकड़े सिलकर तुझे दे दूँगा । उसका मूल्य लाखों में होगा । उस धन को अपन दोनों में बाँट लेंगे । ब्राह्मण महावीर के पीछे गया और नदी के किनारे काटे में फसे हुए वस्त्र को लेकर वापिस लौटा।
इसी तरह जैनेत्तर कथाओं में भी बलीराजा की दान भावना जानने जैसी है । बलीराजा ने इन्द्र होने के लिए नर्मदा नदी के किनारे ९९ यज्ञ पूरे किये । सौवें यज्ञ का प्रारम्भ किया और वह पूरा होने को आया उसी समय विष्णु ने वामनरूप धारण करके उसके पास जाकर के तीन पाँव जमीन की याचना की। बलीराजा ने यह देने के लिए संकल्प करके जल रखा तब विष्णु ने ब्राह्मण रूप त्याग करके विराट रूप धारण किया । एक पाँव पृथ्वी पर,दूसरा पाँव आकाश में रखकर तीसरा पाँव रखते हुए कहा, 'अब तीसरा पाँव कहाँ रखू ?' यह