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________________ दान की निष्फलता के कारण व भाव दान का स्वरूप २८५ महात्मा बुद्ध को जब विशेष ज्ञान हुआ तो उनसे उनके शिष्य अनाथ पिण्ड ने प्रार्थना की - "भंते ! आप अपने ज्ञान का लाभ संसार को भी दीजिए, जिससे उसका भी कल्याण हो।" बुद्ध ने कहा - "संसार के लोग इस ज्ञान के पात्र हों, तब न ?" अनाथपिण्ड- "इस ज्ञान का पात्र कैसा होना चाहिए ?" बुद्ध- "जो अपना सर्वस्वदान कर सके, वही इस ज्ञान का पात्र हो सकता है।" अनाथपिण्ड- "भंते ! आपके लिए ऐसे सर्वस्वदान देने वाले अनेक लोग निकलेंगे । आप मुझे आज्ञा दें तो मैं अभी जाकर आपके लिए सर्वस्व दान ले आऊँ।" बुद्ध - "तू तो अनेक की बात कहता है, यदि एक भी व्यक्ति मिल जाय तो मेरा कार्य हो जाय । पर मैं सर्वस्वदान चाहता हूँ, यह बात किसी पर प्रगट मत करना।" - अनाथपिण्ड पात्र लेकर कौशाम्बी आया । अभी सूर्योदय होने में कुछ देर थी। लोग अभी बिस्तर पर ही पड़े थे तभी अनाथपिण्ड ने आवाज लगाई"तथागत बुद्ध सर्वस्वदान लेना चाहते हैं। यदि कोई सर्वस्वदान दाता हो तो वह मुझे दे।" लोगों ने आवाज सुनी । अनेक आभूषण, रत्न, बहुमूल्य वस्त्र आदि लेकर दौड़े और अनाथपिण्ड के पात्र में डालने लगे। किन्तु अनाथपिण्ड अपने पात्र को उलटा करके उन सब चीजों को नीचे गिरा देता और कहता - "मैं तो सर्वस्वदान चाहता हूँ, ऐसा दान नहीं।" लोग निराश होकर अपनी अपनी चीजें उठाकर लौट गए। अनाथपिण्ड चलते-चलते नगर के बाहर जंगल में आगया। सोचा - नगर में कोई नहीं मिला, तो जंगल में सर्वस्वदानी कहाँ से मिलेगा? फिर भी आशान्वित होकर आवाज लगाता हुआ घूमने लगा । एक महादरिद्र, किन्तु भावनाशील महिला ने अनाथपिण्ड की यह आवाज सुनी। उसके न तो घरबार था, न उसके पास सिर्फ एक फटे वस्त्र के सिवाय और कोई कुछ धनादि था । उसने सोचा – “तथागत बुद्ध सर्वस्वदान चाहते हैं। मेरा सर्वस्व यही वस्त्र है। ऐसा उत्तम पात्र फिर कब मिलेगा ? मुझे इस स्वर्ण सुयोग का लाभ उठा लेना चाहिए।" ऐसा सोचकर उसने भिक्षु को आवाज दी - "ओ भिक्षु ! आओ, मैं तुम्हें सर्वस्वदान देती हूँ।" इस प्रकार जिस मार्ग से अनाथपिण्ड आ रहा था, उसी मार्ग पर स्थित एक पुराने वृक्ष के खोखले में स्वयं उतर गई और अपना
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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