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दान : अमृतमयी परंपरा और न ही उत्तम फल प्राप्त होता है। उत्तम फल तभी मिलता है, जब खुशी से एवं सत्कार से दान दिया जाए।
शुद्ध विधियुक्त भावनापूर्वक दिये गए दान को महाभारत के अनुशासन पर्व (७/६) में इसे महायज्ञ बताकर इसके पाँच अंग बताए हैं -
"चक्षुर्दद्यात् मनोदद्यात् वाचं दद्याच्च सुनृताम् । ..
अनुब्रजेदुपासीत स यज्ञः पंचदक्षिणः ॥" - घर पर आए हुए अतिथि का पाँच प्रकार से स्वागत करना चाहिए। अतिथि को आते देखकर प्रफुल्लित आँखों से उसका स्वागत करे, फिर प्रसन्न मन से मीठी वाणी बोले, किस वस्तु की उसे आवश्यकता है, यह जाने और उस वस्तु को देकर उसकी सेवा करे, जब अतिथि इच्छा पूर्ण होने पर जाने लगे तो घर के बाहर तक उसे छोड़ने जाए । इन पाँचों विधियों से अतिथि का सत्कार करना अतिथियज्ञ की सच्ची दक्षिणा है।
दानविधि में इसीलिए भावना की मुख्यता है । वास्तव में देखा जाय तो दान में देय द्रव्य अधिक दिया या कम दिया ? बहुमूल्य दिया या अल्पमूल्य दिया । धनिक ने दिया या निर्धन ने दिया ? इसका इतना महत्त्व नहीं, जितना महत्त्व दानविधि के साथ भावना का है। राजकुमारी चन्दनबाला ने दासी के रूप में भगवान महावीर को दीर्घकालीन अभिग्रह तप के पारणे में क्या दिया था ? केवल उड़द के बाकुले ही तो दिये थे और वह भी थोड़े से तथा रूखे थे और एक दासी के द्वारा दिये गए थे। विदुर पत्नी ने श्रीकृष्ण को केवल केले के छिलके ही दिये थे और शबरी ने श्रीराम को केवल झूठे बेर ही तो दिये । परन्तु इन सबके पीछे दाता की श्रद्धा, भक्ति, भावना, देने की विधि ही उत्तम थी, इसलिए ये तुच्छदान भी बहुत महत्त्वपूर्ण और विश्व प्रसिद्ध बन गए।
दूसरी बात यह थी कि इन दाताओं ने न तो कोई आडम्बर ही किया, न अपनी नामबरी या प्रसिद्धि के लिए लालायित हुए और न ही अपने दान के पीछे अहंत्व ममत्व की भावना से प्रेरित होकर आदाताओं पर अपना एहसान ही जताया।