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दान की निष्फलता के कारण व भाव दान का स्वरूप
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यह है दान के पाँचों भूषणों का प्रतीकात्मक उदाहरण । दान की विधि के अन्तर्गत ही ये पाँचों भूषण समझने चाहिए ।
इसीलिए नीतिज्ञों ने दान के साथ प्रिय वचन को मानव का सहज गुण बताया है.
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दान देना, प्रिय वचन कहना, धीरता रखना और उचित का ज्ञान होना, ये चारों गुण अभ्यास से प्राप्त नहीं होते, ये चारों सहज गुण हैं 1
दान के भूषण के सन्दर्भ में दान की चार श्रेणियों का वर्णन भी किया गया है ।
" दातृत्वं प्रियवक्तृत्वम् धीरत्वमुचितज्ञता । अभ्यासेन न लभ्यन्ते, चत्वारो सहजा गुणाः ॥"
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१.
पाराशारस्मृति में दान की इन चारों श्रेणियों का वर्णन किया गया है
- लेनेवाले पात्र के सामने जाकर देना उत्तम दान है, उसे बुलाकर देना मध्यमदान है, उसके माँगने पर देना अधमदान है और माँगने पर भी न देकर अपनी चाकरी कराकर देना निष्फलदान है ।
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जहाँ व्यक्ति दान हृदय से नहीं देना चाहता, वहाँ दान देने की औपचारिकता होती है। जब व्यक्ति को कोई चीज देने की इच्छा नहीं होती है तो वह अपनी चीज को भी झूठ बोलकर दूसरे की बता देता है, अगर देता है तो भी रोते-रोते, दूसरों की चीज कहकर देता है । जैसे श्रेणिक राजा की कपिला दासी से कहा गया तू अपने हाथ से दान दे, किन्तु उसने जब साफ इन्कार कर दिया कि मैं कदापि नहीं दे सकती । इन हाथों से मैं पराई चीज कैसे दे दूँ ? तब उसके हाथों के चाटु बाँध दिये और उससे दान देने का आग्रह किया गया, तो भी उसने यही कहते हुए दान दिया कि "मैं नहीं दे रही हूँ, मेरा चाटु दे रहा है।" यह दान नहीं, दान की विडम्बना थी ।
उपेक्षापूर्वक लापरवाही से दान देने में वह आनन्द भी नहीं मिलता
अभिगम्योत्तमं दानमाहूयैव तु मध्यमम् । अधमं याचमानाय सेवादानं तु निष्फलम् ॥
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पाराशरस्मृति